शनिवार, 26 नवंबर 2011

जमाने को सच्चा सखा मिल गया


जमाने को सच्चा सखा मिल गया।
दयानन्द सा देवता मिल गया।।
सर्वोद्धारक स्वामी दयानंद जी 
ये नैया वतन की भंवर में पड़ी।
खड़ी सामने थी मुसीबत बड़ी।
अचानक इसे ना खुदा मिल गया।।1।।

तरफदार कन्याओं  अबलाओं का।
हितैषी अनाथों का विधवावों का।
हमें राह में रहनुमा मिल गया।।2।।

परेशानियों मन्दे हालों के बाद।
बिछुड़ा पड़ा बहुत सालों के बाद।
कि बच्चों को उनका पिता मिल गया।।3।।

धर्म देश जाति की भक्ति मिली।
नई जिन्दगी नई शक्ति मिली।
‘पथिक’ क्या कहे क्या से क्या मिल गया।।4।।

रचनाः- श्री सत्यपाल जी ‘पथिक’

शनिवार, 5 नवंबर 2011

आर्य कुमरों यही व्रत धारो


आर्य कुमरों यही व्रत धारो देश जगाना है।
आर्य बनाना है।।स्थाई।।
आर्योद्धारक महर्षि देव दयानंद जी 
सब सत्य विद्या और पदार्थ विद्या से जाने जाते।
उन सबका है आदिमूल परमेश्वर ये बतलाते।
चौबीस अक्षरी मन्त्र गायत्री सबको सिखाना है।।1।।

वेद का पढ़ना पढ़ाना सुनना और सुनाना।
समझें इसको  परम धर्म ना कोई करे बहाना।
पत्थर पूजें नाहक झूजें उन्हें हटाना है।।2।।

पंच यज्ञ घर-घर में करना सीखें सब नर-नारी।
दुर्व्यसनों से दूर रहें बने सदाचारी उपकारी।
अभक्ष पदार्थ समझ अकारथ उन्हें छुड़ाना है।।3।।

मातृवत् परदारेषु पर धन मिट्टी जाने।
वैदिक शिष्टाचार को वर्तें सीखें ढंग पुराने।
हो गुण अन्दर ‘वीर वीरेन्द्र’ झुके जमाना है।।4।।

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

ओम् नाम का सुमिरन करले कर


ओम् नाम का सुमिरन करले कर दे भव से पार तुझे।
कह लिया कितनी बार तुझे।।स्थाई।।

जिस नगरी में वास तेरा यह ठग चोरों की बस्ती है।
लुट जाते हैं बड़े-बड़े यहां फिर तेरी क्या हस्ती है।
जिसको अपना समझ रहा ये धोखा दे संसार तुझे।।1।।

हाथ पकड़कर गली-गली जो मित्र तुम्हारे डोल रहे।
कोयल जैसी मीठी वाणी कदम-कदम पर बोल रहे।
बनी के साथी बिगड़ी में ना गले लगाये यार तुझे।।2।।

दौलत का दीवाना बनकर धर्म कर्म सब भूल रहा।
पाप पुण्य कुछ पता नहीं क्यों नींद नशे में टूल रहा।
ईश्वर को भी नहीं जानता ऐसा चढ़ा खुमार तेरे।।3।।

तुझसे पहले गये बहुत से कितना धन ले साथ गये।
‘लक्ष्मणसिंह बेमोल’ कहे वो सारे खाली हाथ गये।
तू भी खाली हाथ चलेगा देखेंगे नर नार तुझे।।4।।

रचना- स्व. श्री लक्ष्मण सिंह जी 'बेमोल'

बुधवार, 2 नवंबर 2011

संसार के वाली ने संसार


संसार के वाली ने संसार रचाया है।
संसार रचाकर के कण-कण में समाया है।।स्थाई।।

गरदूं पै सितारों में कैसी चमा निराली है।
महताब में ठण्डक है और शम्स में लाली है।
कहीं श्याम घटाओं ने कैसा जल बरसाया है।।1।।

पतझड़ में बहारों में फूलों में खारों में।
तेरा रूप झलकता है रंगीन नजारों में।
भौंरों की गुंजारों ने क्या गीत सुनाया है।।2।।

कहीं निर्मल धारा है कहीं सागर खारा है।
कहीं गहरा पानी है कहीं दूर किनारा है।
जगदीश तेरी महिमा कोई जान ना पाया है।।3।।

कोई चार के कन्धों पर दुनिया से जाता है।
कोई ढोल बजाकर के बारात सजाता है।
‘बेमोल’ ये सृष्टि का कैसा चक्र चलाया है।।4।।

रचनाः- स्व. श्री लक्ष्मण सिंह बेमोल जी

खंजर से उड़ा दो चाहे मेरी

खंजर से उड़ा दो चाहे मेरी बोटी-बोटी को।
दूंगा नहीं चोटी को मैं दूंगा नहीं चोटी को।।


सबसे प्यारी चीज देखो हर किसी की जान है।
इस चोटी के लिये मगर जान भी कुर्बान है।
पहिचान है मुझे मैं सब समझूं खरी खोटी को।।1।।

चोटी के बदले में लूं ना दुनिया की जागीर में ।
बांध नहीं सकते तुम मुझको जर की जंजीर में।
हकीर ना में इतना चोटी देके चाहूं रोटी को।।2।।

समझाया हकीकत जो कि हकीकत ही नाम है।
काट दो हकीकत को तुम बस का नहीं काम है।
खाम है खयाल जरा परख ले कसौटी को।।3।।

गर्दन के उतरने पर ही उतरेगा यज्ञोपवीत।
क्योंकि ये हमारी आर्यों की है पुरानी रीत।
भयभीत करना चाहते हो तुम समझ आयु छोटी को।।4।।

शीश काट सकते हो लो काट श्रीमान् मेरा।
डिगा नहीं सकते कभी धर्म से तुम ध्यान मेरा।
बलिदान मेरा पहुंचायेगा ‘वीर’ उच्चकोटि को।।5।।

रचनाः- स्व. श्री वीरेन्द्र जी ‘वीर’

खंजर से उड़ा दो चाहे मेरी बोटी-बोटी को।
दूंगा नहीं चोटी को मैं दूंगा नहीं चोटी को।।


सबसे प्यारी चीज देखो हर किसी की जान है।
इस चोटी के लिये मगर जान भी कुर्बान है।
पहिचान है मुझे मैं सब समझूं खरी खोटी को।।1।।

चोटी के बदले में लूं ना दुनिया की जागीर में ।
बांध नहीं सकते तुम मुझको जर की जंजीर में।
हकीर ना में इतना चोटी देके चाहूं रोटी को।।2।।

समझाया हकीकत जो कि हकीकत ही नाम है।
काट दो हकीकत को तुम बस का नहीं काम है।
खाम है खयाल जरा परख ले कसौटी को।।3।।

गर्दन के उतरने पर ही उतरेगा यज्ञोपवीत।
क्योंकि ये हमारी आर्यों की है पुरानी रीत।
भयभीत करना चाहते हो तुम समझ आयु छोटी को।।4।।

शीश काट सकते हो लो काट श्रीमाान् मेरा।
डिगा नहीं सकते कभी धर्म से तुम ध्यान मेरा।
बलिदान मेरा पहुंचायेगा ‘वीर’ उच्चकोटि को।।5।।

रचनाः- स्व. श्री वीरेन्द्र जी ‘वीर’

ऐसी बिगड़ी है शिक्षा वतन की--


ऐसी बिगड़ी है शिक्षा वतन की जो पढ़ाने के काबिल नहीं है।
नैया मझधार भारत की सजनों पार जाने के काबिल नहीं है।।

स्कूल कॉलेज में कैसी भारी लगी अग्नि है देती दिखाई।
दिन धोळे में आज रही जा अपने प्राणों से प्यारी जलाई।
सारे भारत की सन्तति सजनों  जो जलाने के काबिल नहीं है।।1।।

करे कॉलेज में सिस्टर पढ़ाई और संग में चचेरा भाई।
सिनेमा हॉल में दोनों ने जाकर पास-पास में कुर्सी लगाई।
आगे बनती कहानी जो सजनों वो बताने के काबिल नहीं है।।2।।

बने फिरते हैं ये दीवानें गायें गलियों में गन्दे गाने।
रहे पिचक गाल पग फिर रहे पर नहीं किसी की माने।
बनी बन्दर शक्ल है जो सजनों वो दिखाने के काबिल नहीं है।।3।।

हुआ फैशन में पागल जवां है किया माता-पिता का दिवाला।
लगे तेल फुलेल बदन पर और अन्दर से पड़ रह काला।
आज फैशन चला है जो सजनों वह चलाने के काबिल नहीं है।।4।।

खाये छोले भटूरे दिन भर नहीं रोटी शाक मन भाता।
खाये रैंट खखार जो मुर्गी उसके अण्डे में ताकत बताता।
आज घी दूध मक्खन को सजनों यह पचाने के काबिल नहीं है।।5।।

ब्रह्मचर्य नष्ट कर डाला कैसा फीका है पड़ रहा चेहरा।
सारे दिन चक्कर चलते हैं सर में ऊठा बैठी में आता अन्धेरा।
दौड़ दण्ड बैठक कसरत को सजनों यह लगाने काबिल नहीं है।।6।।

बडे़ रोबे से प्रॉफेसर आये और कुर्सी के ऊपर विराजे।
झट लड़कों ने बन्द किये हैं कमरे के सभी दरवाजे।
क्री ऐसी पिटाई है सजनों घर जाने के काबिल नहीं है।।7।।

कहां तक मैं सुनाऊँ रे लोगों आज भारत की बिगड़ी कहानी।
सिनेमा और वैश्या घरों में दिल धोळे है लुटती जवानी।
यह भारत में आजादी सजनों टिक जाने के काबिल नहीं है।।8।।

आर्यवीरों होश में आओ इन कॉलेज के गुरुकुल बनाओ।
सारे विश्व के हर घर-घर में तुम वेदों का नाद बजाओ।
‘मेधाव्रत’ समय अब सजनों पछताने के काबिल नहीं है।।9।।

रचनाः- मेरे परम पूज्य गुरु श्री आचार्य मेधाव्रत जी

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

ओ वतन के नोजवां --


ओ वतन के नोजवां जा रहा है तू कहां।
 याद कर वो दास्तां जिसको गाता है जहां।।


थर-थराती थी जमीं जब कदम धरता था तू।
काल भी हो सामने पर नहीं डरता था तू।
आज भी करते बयां ये जमीं ये आसमां।।1।।

रहजनों हमलावरों का सिर झुकाया था कभी।
बाजुए कुव्वत में तेरी नभ हिलाया था कभी।
हाथ ले तीरों कमां तू मगर बढ़ता गया।।2।।

तूने रखी लाज अपने बहनों के सिन्दूर की।
चाल भी चलने न पाई दुष्ट पापी क्रूर की।
उनकी वो खरमस्तियां मेट डाली हस्तियां।।3।।

क्या कहूं ‘बेमोल’ तेरा आज कैसा ढंग है।
रंग महफिल में भी तेरा रंग सब बदरंग है।
खो दिया सब हौसला शिवा और प्रताप का।।4।।


लय- जब चली ठंडी हवा ---
रचनाः- स्व. श्री लक्ष्मणसिंह जी ‘बेमोल’

वेद अनुकूल राज बिन सारे--


वेद अनुकूल राज बिन सारे भूमण्डल का नाश हुआ।
भूमण्डल का नाश हुआ मेरे देश का भारी ह्रास हुआ।।स्थाई।।

वेद ज्ञान महाभारत काल से कुछ-कुछ घटना शुरु हुआ।
उन्हीं दिनों से म्हारा आपस में कटना पिटना शुरु हुआ।
ईश्वर भक्ति भूल गये पाखण्ड का रटना शुरु हुआ।
धर्मराज जो कहा करें थे उनका हटना शुरु हुआ।
हटते-हटते इतने हटगे बिल्कुल पर्दाफास हुआ।।1।।

दूध भैंस का ना पीते थे घर-घर गऊ पालते थे।
पीणे से जो दूध बचे था उसका घृत निकालते थे।
सामग्री में मिलाको उसको अग्नि अन्दर डालते थे।
उससे भी जो बच जाता था उसका दिवा बालते थे।
 नहीं तपेदिक जुकाम नजला नहीं किसी के सांस हुआ।।2।।

ना हिन्दू ना मुसलमान ना जैनी सिख ईसाई थे।
महज एक थी मनुष्य की जाति सब वेदों के अनुयायी थे।
पानी दूध की तरह आपस में मिलते भाई-भाई थे।
ना अन्यायी राजा थे ना रिश्वतखोर सिपाही थे।
वेद का सूरज छिपते ही दुनिया में बन्द प्रकाश हुआ।।3।।

सिर पर थे पगड़ी चीरे हाथ में सदा लठोरी थी।
राजा थे सूरजमल से और रानी यहां किशोरी थी।
शादी पच्चीस साल का छोरा सोलह साल की छोरी थी।
‘पृथ्वीसिंह बेधड़क’ कहे यहां नहीं डकती चोरी थी।
डसी तरह से फिर होज्या गर वेदों में विश्वास हुआ।।4।।

रचनाः- स्व. श्री पृथ्वीसिंह जी ‘बेधड़क’

विश्वासों के दीप जलाकर--


विश्वासों के दीप जलाकर युग ने तुम्हें पुकारा।
सूर्य चन्द्र सा जग में आर्यों चमके भाल तुम्हारा।।


सदियां बीत गई कितनी ही छाया घोर अन्धेरा।
पल-पल बढ़ता ही जाता है, महानाश का घेरा।
जागो मेरे राम सनातन, संस्कृति को जीवन दो।
जागो कृष्णचन्द्र योगेश्वर भारत का हर जन हो।
जागो शंकर तोड़ दो जग के भव बन्धन की कारा।।1।।

अनाचार का शीश काटने, परशुराम अब जागो।
जागो भामाशाह राष्ट्र के हित में सब कुछ त्यागो।
हरिश्चन्द्र जागो असत्य की छल की रोको आंधी।
राजनीति का छद्म छुड़ाने, जागो मेरे साथी।
टूटी है पतवार दयानन्द ऋषिवर बनो सहारा।।2।।

राणा सांगा जगो शत्रु से रणकर शौर्य दिखाओ।
पवन पुत्र जग पड़ो लोभ लंका को आग लगाओ।
जोगो मेरे चिर अतीत की निष्ठाओं  सब जागो।
दो जग को प्रकाश का नूतन दान नींद अब त्यागो।
जग में शान्ति प्रेम बरसाओ बन सुरसरि की धारा।।3।।

मन समर्पित तन समर्पित


मन समर्पित तन समर्पित और यह जीवन समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ




देश तुझको देखकर यह बोध पाया
और मेरे बोध की कोई वजह है
स्वर्ग केवल देवताओं का नहीं है
दानवों की भी यहाँ अपनी जगह है
स्वप्न अर्पित प्रश्न अर्पित आयु का क्षण क्षण समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ



रंग इतने रूप इतने यह विविधता
यह असंभव एक या दो तूलियों से
लग रहा है देश ने तुझको पुकारा
मन बरौनी और बीसों उँगलियों से
मान अर्पित गान अर्पित रक्त का कण कण समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ



सुत कितने पैदा किए जो तृण भी नहीं थे
और वे भी जो पहाड़ों से बड़े थे
किंतु तेरे मान का जब वक्त आया
पर्वतों के साथ तिनके भी लड़े थे
ये सुमन लो, ये चमन लो, नीड़ का तृण तृण समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ