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सोमवार, 4 जनवरी 2016

ऐ वतन के नौजवां जा रहा है तू कहाँ---।

ऐ वतन के नौजवां जा रहा है तू कहाँ।
याद कर वो दास्तां जिसको गाता है जहाँ।।



थर-थराती थी जमीं जब कदम धरता था तू।
काल भी हो सामने पर नहीं डरता था तू।
आज भी करते बयां ये जमीं ओर आसमां।।1।।

रहजनों हमलावरों का सिर झुकाया था कभी।
बाजुए कुव्वत में तेरी नभ हिलाया था कभी।
हाथ ले तीरों कमां तू मगर बढ़ता गया।।2।।

तूने रखी लाज अपनी बहनों के सिन्दूर की।
चाल भी चलने न पाई दुष्ट पापी क्रूर की।
उनकी वो खर मस्तियां मेट डाली हस्तियां।।3।।

क्या कहूं बेमोल तेरा आज कैसा ढंग है।
रंग-महफिल में भी तेरा रंग सब बदरंग है।
खो दिया सब हौसला शिवा और प्रताप का।।4।।

उठ खड़ा हो तान सीना, करके तू हुंकार को।
जुल्म पाखंड की मिटादे मजहबी दीवार को।
तेरे चर्चों को बयां फिर करेगा ये जहां।।5।।


अर्योपदेशक श्री लक्ष्मण सिंह 'बेमोल'




जवानों जवानी में चलना संभल के-----।

जवानों जवानी में चलना संभल के।
आती नहीं है ये दोबारा निकल के।।



कठिन यह जवानी की मंजिल है प्यारों।
कभी लड़खड़ा जाओ कुछ दूर चल के।।1।।

विषय रूपी रहजन अनेकों मिलेंगे।
खबरदार कोई न ले जाये छल के।।2।।

सुधर जाये परलोक जिससे यतन कर।
जब आयेगी मृत्यु न जायेगी टल के।।3।।

‘वीरेन्द्र‘ न दिल है लुटाने की वस्तु।
लुटाया यह जिसने रहा हाथ मल के।।4।।

चौधरी वीरेन्द्र कुमार 'वीर'

गुरुवार, 22 अक्टूबर 2015

तुम कितने वीर हो बच्चों, तुम्हें आओ बताते हैं।


तुम कितने वीर हो बच्चों, तुम्हें आओ बताते हैं।
तुम्हारे अन्दर जो सोए विचारों को जगाते हैं।।

धर्म पर जान देने वाला हकीकत वीर बालक था।
तपस्या भीषण की जिसने ध्रुव भी एक बालक था।
फतहसिंह और जोरावर भी दोनों वीर बालक थे।
दया दुष्टों को ना आयी दीवारों में चिनाते है।।1।।

आरुणी एक बालक था वो तुमने भी सुना होगा।
गुरु का भक्त था कैसा वो तुमने भी सुना होगा।
 गुरु ने आज्ञा दी उसको खेत पर जाओ तुम बेटे।
रात भर नाली में लेटे ना वो पानी बहाते हैं।।2।।

अभिमन्यु वीर बालक ने चक्रव्यूह तोड़ डाला था।
कौरवों के दाँत किये खट्टे किया वो युद्ध निराला था।
शिवा प्रताप का बचपन अनोखा उनका भाला था।
मूलशंकर भी बालक थे जो सारा जग जगाते हैं।।3।।

भक्त प्रहलाद का किस्सा किताबों में भी आता है।
हिरण्यकश्यप पिता जिसको बहुत ज्यादा सताता हैं।
राम का अश्वमेध घोड़ा जब जंगल में आता है।
पकड़ कर बांध लिया घोड़ा, वो लव-कुश याद आते हैं।।4।।

एकलव्य भील बालक में गुरु की श्रद्धा-भक्ति थी।
चलाये तीर अलबेले अनोखी उसमें शक्ति थी।
अन्धे थे माता-पिता जिसके श्रवण भी एक बालक था।
बैठा कर कन्धों पर उनको सर्वत्र घुमाते है।।5।।

तुम्ही में भगत रहते हैं, तुम्हीं में दयानन्द रहते हैं।
तुम्हीं में वीर बन्दा से निडर शमशेर रहते हैं।
चीर लड़का दिया मुँह में अनेकों कष्ट सहते हैं।
दाँत शेरों के गिने जिसने वो भरत भी तुम में रहते हैं।।6।।

संजीव आर्य सबगा बागपत उ प्र

शनिवार, 5 नवंबर 2011

आर्य कुमरों यही व्रत धारो


आर्य कुमरों यही व्रत धारो देश जगाना है।
आर्य बनाना है।।स्थाई।।
आर्योद्धारक महर्षि देव दयानंद जी 
सब सत्य विद्या और पदार्थ विद्या से जाने जाते।
उन सबका है आदिमूल परमेश्वर ये बतलाते।
चौबीस अक्षरी मन्त्र गायत्री सबको सिखाना है।।1।।

वेद का पढ़ना पढ़ाना सुनना और सुनाना।
समझें इसको  परम धर्म ना कोई करे बहाना।
पत्थर पूजें नाहक झूजें उन्हें हटाना है।।2।।

पंच यज्ञ घर-घर में करना सीखें सब नर-नारी।
दुर्व्यसनों से दूर रहें बने सदाचारी उपकारी।
अभक्ष पदार्थ समझ अकारथ उन्हें छुड़ाना है।।3।।

मातृवत् परदारेषु पर धन मिट्टी जाने।
वैदिक शिष्टाचार को वर्तें सीखें ढंग पुराने।
हो गुण अन्दर ‘वीर वीरेन्द्र’ झुके जमाना है।।4।।

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

ओ वतन के नोजवां --


ओ वतन के नोजवां जा रहा है तू कहां।
 याद कर वो दास्तां जिसको गाता है जहां।।


थर-थराती थी जमीं जब कदम धरता था तू।
काल भी हो सामने पर नहीं डरता था तू।
आज भी करते बयां ये जमीं ये आसमां।।1।।

रहजनों हमलावरों का सिर झुकाया था कभी।
बाजुए कुव्वत में तेरी नभ हिलाया था कभी।
हाथ ले तीरों कमां तू मगर बढ़ता गया।।2।।

तूने रखी लाज अपने बहनों के सिन्दूर की।
चाल भी चलने न पाई दुष्ट पापी क्रूर की।
उनकी वो खरमस्तियां मेट डाली हस्तियां।।3।।

क्या कहूं ‘बेमोल’ तेरा आज कैसा ढंग है।
रंग महफिल में भी तेरा रंग सब बदरंग है।
खो दिया सब हौसला शिवा और प्रताप का।।4।।


लय- जब चली ठंडी हवा ---
रचनाः- स्व. श्री लक्ष्मणसिंह जी ‘बेमोल’

रविवार, 30 अक्टूबर 2011

कृण्वन्तो विश्वमार्यम् नहीं--


कृण्वन्तो विश्वमार्यम् नहीं भुलाना है।
आर्य सब संसार हमें बनाना है।।स्थाई।।


सबसे पहले सब भांति अपने को आप बनाना।
किसी संकट के झंझट से तुम पीछे मत हट जाना।
कदम बढ़ाना है।।1।।

मन वचन कर्म के अन्दर अन्तर न होने पावे।
कर्तव्य पूरा करने में चाहे जान भले ही जाये।
ना घबराना है।।2।।

ऋषि दयानन्द का जीवन है राह बताने वाला।
खाई ईंटे पत्थर गाली पीया अन्त जहर का प्याला।
प्राण गंवाना है।।3।।

श्रद्धा से श्रद्धानन्द ने सीने पे खाई गोली।
मरे लेखराम छुरी खाके लाजपत ने सही लठोली।
अमर पद पाना है।।4।।

‘ताराचन्द’ ओम् का झण्डा फहरा दो गांव नगर में।
एक वैदिक नाद बजाना तुम सारी दुनिया भर में।
धूम मचाना है।।5।।

लयः- रेशमी सलवार कुरता.........

रचनाः- स्व. श्री ताराचन्द जी ‘वैदिकतोप’

छोटे-छोटे पाँव हैं अपने--


छोटे-छोटे पाँव हैं अपने आगे मंजिल बड़ी-बड़ी।
निकल पड़ो रे छांव से बाहर धूप बुलाती खड़ी-खड़ी।।टेक।।

छोटे-छोटे पाँव हैं अपने
आगे मंजिल बड़ी-बड़ी---
जहाँ-जहाँ भी आँसू होंगे हम पहुँचेंगे वहीं-वहीं।
फूलों पर जो शूल बिछें हैं आगे बढ़ते रहें वहीं।
देख रही है दुनियां हमको चौरस्ते पर खड़ी-खड़ी।।1।।

जिस मिट्टी में जन्म लिया है उसका कर्ज चुकायेंगे।
हम गुलाब की कलियां हैं इस धरती को महकायेंगे।
जीवन आगे बढ़ जाता है मौत सिसकती पड़ी-पड़ी।।2।।

आओ हम सब काम करें अब देश को स्वर्ग बनायेंगे।
ऊँच-नीच के भेद भाव को मिलकर आज मिटायेंगे।
बिखर रही मोती की लड़ियां हम जोड़ेंगे कड़ी-कड़ी।।3।।

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

ऋषि ऋण को चुकाना है

ऋषि ऋण को चुकाना है आर्य राष्ट्र बनाना है
तो मिल के बढ़ो मंजिल पे चढ़ो बढ़ने का जमाना है
देश के कोने-कोने में सन्देश सुनाना है

हम कसकर कमर चले हैं, निकले हैं
इस मार्ग में ले मजबूत इरादा
हम कभी न विचलित होंगे, ना होंगें 
परवाह नहीं चाहे आये कितनी बाधा
हमारा वेद खजाना है, जो सबसे पुराना है //१//

असमानता की ये खाई, हाँ खाई
अब पाटनी है समाज की आंगन से 
मजहब की ये दीवारें, हाँ दीवारें 
नहीं राखनी है माता के दामन में
पाखंड गढ़ ढाना है दलितों को उठाना है //२//

सूरज की किरण से तपकर, हाँ तपकर
जब निकलेगा मेहनत का पसीना
सोना उगलेगी ये धरती, हाँ धरती 
खुशहाली हो दूध दही का पीना
खेतों में कमाना है उद्योग लगाना है //३//

आपस के झगडे सारे, हाँ सारे 
पंचायत में अपने आप निपटाओ
इस दहेज के चक्कर से , टक्कर से
यह विनती करे समाज को बचाओ
मंहगे को जमाना है ना लुटना-लुटाना है  //४// 

धरती की शान

धरती की शान तू है मनु की सन्तान 
तेरी मुट्ठियों में बंद तूफ़ान है रे
मनुष्य तू बड़ा महान है भूल मत 

तू जो चाहे पर्वत पहाड़ों को फोड़ दे 
तू जो चाहे नदियों के मुख को भी मोड़ दे
तू जो चाहे माटी से अमृत निचोड़ दे
तू जो चाहे धरती से अम्बर को जोड़ दे
अमर तेरे प्राण मिला तुझको वरदान 
तेरी आत्मा में स्वयं भगवान है 

नैनों में ज्वाल तेरी गति में भूचाल 
तेरी छाती में छिपा महाकाल है
धरती के लाल तेरा हिमगिरी सा भाल 
तेरी भृकुटी में तांडव का ताल है
निज को तू जान जरा शक्ति पहचान
तेरी वाणी में युग का आह्वान है 

धरती सा धीर तू है अग्नि सा वीर 
अरे तू जो चाहे काल को भी थाम ले 
पापों का प्रलय रुके पशुता का शीश झुके
तू जो अगर हिम्मत से काम ले
गुरु सा मतिमान पवन सा तू गतिमान 
तेरी नभ से भी ऊँची उडान है रे 

हो रही धरा विकल

हो रही धरा विकल हो रहा गगन विकल 
इस लिए पड़ा निकल है आर्यों का वीर दल 

असंख्य कीर्ति रश्मियाँ विकीर्ण तेरी राहों में
सदैव से विजय रही है वीर तेरी बाँहों में
रुके कहीं न एक पल प्रवाह जोश का प्रबल //१//

ऋचाएं वेद की लिए सुगंध होम की लिए
जिधर से हम पड़े निकल जले अनेक ही दिए
सभी प्रकार से कुशल सभी प्रकार से सबल //२//

अज्ञान अन्धकार को अन्याय-अत्याचार को
मिटाए जाति-पांति भेद-भाव के विचार को
साथ लिए सबको चल ऋषि ध्येय ही सफल //३// 

उठो दयानंद के सिपाहियों-

उठो दयानंद के सिपाहियों समय पुकार रहा है
देश द्रोह का विषधर फन फैला फुंकार रहा है

उठो विश्व की सूनी आँखें काजल मांग रही हैं
उठो अनेकों द्रुपद सुताएँ आँचल मांग रही हैं
मरघट को पनघट सा कर दो जग की प्यास बुझा दो
भटक रहे जो मरुस्थलों में उनको राह दिखा दो
गले लगालो उनको जिनको जग दुत्कार रहा है//१//


तुम चाहो तो पत्थर को भी मोम बना सकते हो
तुम चाहो तो खारे जल को सोम बना सकते हो
तुम चाहो तो बंजर में भी बाग लगा सकते हो
तुम चाहो तो पानी में भी आग लगा सकते हो
जातिवाद जग की नस-नस में जहर उतर रहा है //२//

याद करो क्यों भूल गए जो ऋषि को वचन दिया था
शायद वायदा याद नहीं जो आपने कभी किया था
वचन दिया था ओम पताका कभी न झुकने देंगे
हवन कुंड की अग्नि घरों से कभी न बुझने देंगे 
लहू शहीदों का गद्दारों को धिक्कार रहा है//३//


कब तक आँख बचा पाओगे आग बहुत फैली है
उजली-उजली दिखने वाली हर चादर मैली है
लेखराम का लहू पुकारे आँख जरा तो खोलो 
एक बार मिलकर के सारे दयानंद की जय बोलो
वेदज्ञान का व्यथित सूर्य तुम्हे निहार रहा है//४//

रविवार, 3 अप्रैल 2011

आर्यवीर दल ध्येय गीत

ओ३म् इन्द्रं वर्धन्तो अप्तुरः कृण्वन्तो विश्वमार्यं!
अपघ्नन्तो अराव्णः !!

हे प्रभु ! हम तुमसे वर पावें
सकल विश्व को आर्य बनावें

 फैले सुख संपत्ति फैलावें
आप बढ़ें तव राज्य बढ़ावें

राग द्वेष को दूर भगावें
प्रीति रीति की नीति चलावें