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शनिवार, 25 नवंबर 2023

तुम्हीं मेरे बन्धु सखा तुम ही मेरे

 तुम्हीं मेरे बन्धु सखा तुम ही मेरे, तुम्हीं मेरी माता तुम ही पिता हो।

तुम्हीं मेरे रक्षक तुम्हीं मेरे पालक, तुम्हीं इष्ट मेरे तुम्हीं देवता हो।।


तुम्हीं ने बनाये शशि भानु तारे, अगन और गगन जल, हवा भूमि सारे।

तुम्हीं ने रचा यह संसार सारा, अजब कारीगर हो अजब रचयिता हो।।


तुम्हें छोड़ किसकी शरण में मैं जाऊँ, है सब कुछ तेरा क्या तुझ पर चढाऊँ

तुम्हीं मेरी विद्या तुम्हीं मेरी दौलत, मैं क्या क्या बताऊँ की तुम मेरे क्या हो।।


जमाना तुझे ढंूढ़ता फिर रहा है, न पाया किसी को कहां तू छुपा है।

पता मिल रहा है पत्ते पत्ते से तेरा, गलत है जो कहते हैं तुम लापता हो।।


अजब तेरी लीला अजब तेरी माया, सभीसे अलग सभी में समाया।

सत्ता से तेरी मुकर जायें कैसे कि, हर सूं विरेन्द्र रहे जगमगा हो।

बुधवार, 8 फ़रवरी 2017



सुख भी मुझे प्यारे हैं, दुःख भी मुझे प्यारे हैं।
छोडूं मैं किसे भगवन्, दोनों ही तुम्हारे हैं।।

सुख-दुःख ही तो जीवन की गाड़ी को चलाते हैं।
सुख-दुःख ही तो हम सबको इन्सान बनाते हैं।
संसार की नदिया के दोनों ही किनारे हैं।।01।।

दुःख चाहे न कोई भी, सब सुख को तरसते हैं।
दुःख में सब रोते हैं, सुख में सब हँसते हैं।
सुख मिले पीछे उसके सुख ही तो सहारे हैं।।02।।

सुख में तेरा शुक्र करूँ, दुःख में फरियाद करूँ।
जिस हाल में रखे मुझे, मैं तुमको याद करूँ।
मैंने तो तेरे आगे, ये हाथ पसारे हैं।।03।।

जो है तेरी रजा उसमें, देखूं मैं पकड़ कैसे।
मैं कैसे कहूँ मेरे, कर्मों के हैं फल कैसे।
चख करके न देखूगा, मीठे हैं कि खारे हैं।।04।।

मंगलवार, 29 मार्च 2016

कृपालु भगवन् कृपा हो करते इसी कृपा से---

कृपालु भगवन् कृपा हो करते इसी कृपा से नर तन मिला है।
दयालु भगवन् दया हो करते इसी दया से ये मन मिला है।।टेक।।

अजर, अमर तुम हो सृष्टिकर्ता, अनुपम, अनादि हो जग के भर्ता।
अभय, अजन्मा हो जग के स्वामी, आकार तेरा नहीं मिला है।।01।।

ब्रह्माण्ड रचते हो तुम स्वयं ही, न शक्तिमत्ता तुम जैसी कोई।
कण-कण के योजक हे जगनियन्ता! इच्छा से तेरी हर कण हिला है।।02।।

है कैसी अद्भुत कारीगरी ये, जो कोई देखे होता अचम्भित।
न हाथ सुई लेकर के धागा, मानुष का चोला कैसे सिला है।।03।।

हो करते कतरन तुम न्यारी-न्यारी, विविध रंगों से भरी फुलवारी।
सौरभ सुमन की मैं जाऊँ वारी, चमन का हर गुल सुन्दर खिला है।।04।।

विविध खनिज से भरी है वसुधा, क्या स्वर्ण, चान्दी क्या ताम्र, लौहा।
है प्राणवायु कैसी देती जो जीवन, भण्डार जन-धन सबको मिला है।।05।।

हैं कैसे जलचर रहते ही जल में, अन्दर ही कैसे हैं श्वास लेते।
हैं कुछ उभयचर प्राणी जगत् में, टू इन ये वन में मुझको मिला है।।06।।

है न्यायकारिन्! हो न्याय करते, किया हो जैसा वैसा हो भरते।
ना तोलते कम और ना जियादा, चलता निरन्तर ये सिलसिला है।।07।।

न तुम हो खाते बस हो खिलाते, न तुम हो पीते बस हो पिलाते।
भर-भर के आनन्द का रस पिलाया, आनन्द से मन कमल खिला है।।08।।

पग पाप पथ पर कभी बढे़ ना, पुण्यों की सरणि पर नित बढूँ मैं।
‘नन्दकिशोर’ बढ़ो अभय मन, मुश्किल से मानव का तन मिला है।।09।।

लय-तुम्हीं हो माता पिता तुम्हीं हो तुम्हीं हो बन्धु सखा तुम्हीं हो

रचना:- नन्दकिशोर आर्य
प्राध्यापक संस्कृत
गुरुकुल कुरुक्षेत्र

गुरुवार, 21 जनवरी 2016

सत्ता तुम्हारी भगवन्, जग में समा रही है--।

सत्ता तुम्हारी भगवन्, जग में समा रही है।
तेरी दया सुगन्धी हर गुल से आ रही है।।



रवि-चन्द्र और तारे तूने बनाये सारे।
सबमें ये तेरी ज्योति, इक जगमगा रही है।।1।।

विस्तृत वसुन्धरा पर, सागर बनाये तूने।
तह जिनकी मोतियों से, अब चमचमा रही है।।2।।

दिन-रात प्रातः-सायं मध्याह्न भी बनाया।
ऋतु पलट-पलट अपना, करतब दिखा रही है।।3।।

सुन्दर सुगंधी वाले, पुष्पों में रंग तेरा।
यह ध्यान फूल पत्ती, तेरा दिला रही है।।4।।

हे ब्रह्म विश्व कर्ता, वर्णन हो तेरा कैसे।
जल-थल में तेरी महिमा हे ईश छा रही है।।5।।

मेरे मयूर मन के आनन्द घन तुम्हीं हो---

।।स्थाई।।

मेरे मयूर मन के आनन्द घन तुम्हीं हो।
आराध्य प्रभु तुम्ही हो, शोभा सदन तुम्हीं हो।।

।।अन्तरा।।
हैं गोद में गगन के कोटि-कोटि तारे।
मेरे नयन के तारे हे प्राण धन तुम्हीं हो।।1।।

।।अन्तरा।।
मानो चाहे न मानो मुझ मुग्ध भृंग के।
मकरन्द मय सुगन्धित सुरभित सुमन तुम्हीं हो।।2।।

।।अन्तरा।।
अति तममयी निशा में आकुल भ्रमित पथिक को।
पावन प्रकाश पूरित दीपक किरण तुम्हीं हो।।3।।

रविवार, 3 जनवरी 2016

ओम् नाम अति प्यारा, मुझे ओम् नाम......

ओम् नाम अति प्यारा, मुझे ओम् नाम अति प्यारा।
जीने का सहारा मेरे, जीने का सहारा।।टेक।। 
ओम् नाम अति प्यारा.......


रोम-रोम में ओम् बसा है, ओम् नाम सुखदायी।
रक्षक-पोषक मात-पिता है, वही बहन और भाई।
सारे सहारे छूट जायें पर, उसका मिले सहारा।।01।।

हर पल ओम् का नाम हो मुख में, यही कामना मन में।
कतरा-कतरा ओममयी हो, जो भी है इस तन में।
तन-मन-धन सब ओम् पे अर्पण, जीवन ओम् पे वारा।।02।।

नेक भावना लेकर मन में, ओम् नाम उच्चारो।
फंसी भंवर में पार हो नैया, सुनलो ओम् के प्यारों।
जग को रचता ओर टिकाता, वही है पालन हारा।।03।।

ओम् नाम आनन्द का सागर, मैं आनन्द पिपासु।
खुशी मिलन की अपार कभी, और कभी छलकते आंसू।
’संजीव’ हृदय में झाँक देख ले, ना फिर मारा-मारा।।04।।


रचनाकार:- संजीव कुमार आर्य 
मुख्य-संरक्षक गुरुकुल कुरुक्षेत्र

सोमवार, 5 अक्टूबर 2015

प्रभु तुम अणु से भी सूक्ष्म हो------|



प्रभु तुम अणु से भी सूक्ष्म हो, प्रभु तुम गगन से विशाल हो।
मैं मिसाल दूं तुम्हें कौनसी, दुनिया में तुम बेमिसाल हो।।

हर दिल में तेरा धाम है, और न्याय ही तेरा काम है।
सबसे बड़ा तेरा नाम है, जगनाथ हो जगपाल हो।।1।।

तुम साधकों की हो साधना, या उपासकों की उपासना।
किसी भक्त की मृदु भावना या किसी कवि का खयाल हो।।2।।

मिले सूर्य को तेरी रोशनी खिले चांद में तेरी चांदनी।
सब पर दया तेरी पावनी प्रभु तुम तो दीन दयाल हो।।3।।

तुझ पर किसी का ना जोर है, तेरा राज्य ही सभी ओर है।
तेरे हाथ सबकी ही डोर है तुम्ही जिन्दगी तुम्ही ताल है।।4।।

जो खत्म ना हो वो किताब हो बेसुमार हो बेहिसाब हो।
जिस का कहीं ना जवाब हो उलझा हुआ वो सवाल हो।।5।।

कोई नर तुझे न रिझा सका तेरा पार कोई न पा सका।
न ‘पथिक’ वो गीत ही गा सका जिसमें तेरा सुर ताल हो।।6।।

श्री सत्यपाल जी 'पथिक' आर्य भजनोपदेशक



शुक्रवार, 8 मार्च 2013

नर-नारी सब प्रातः-शाम----


नर-नारी सब प्रातः-शाम,
भजलो प्यारे ओम् का नाम।


ओम नाम का पकड़ सहारा,
जो है सच्चा पिता हमारा।
वह ही है मुक्ति का धाम,
भजलो प्यारे ओम् का नाम।।१।।

कैसा सुन्दर जगत् रचाया,
सूर्य चाँद आकाश बनाया।
गुण गाता है जगत् तमाम,
भजलो प्यारे ओम् का नाम।।२।।

पृथिवी और पहाड़ बनाये,
नदियाँ - नाले खूब सजाये।
बिन कर कर्म करे निष्काम,
भजलो प्यारे ओम् का नाम।।३।।

ऋषियों-मुनियों ने है ध्याया,
अन्त किसी ने न उसका पाया।
करते हैं उसको प्रणाम,
भजलो प्यारे ओम् का नाम।।४।।

मन अपने को शुद्ध बनाओ,
विषय-विकारों से बच जाओ।
वेदों का यह ही फरमान,
भजलो प्यारे ओम् का नाम।।५।।

हीरा जन्म गँवाओं ना तुम,
‘नन्दलाल’ घबराओ ना तुम।
सन्ध्या करो सुबह और शाम,
भजलो प्यारे ओम् का नाम।।६।।

मंगलवार, 5 मार्च 2013

जीवन की घड़ियाँ यूँ ही न खो, ओम् जपो, ओम् जपो---


जीवन की घड़ियाँ यूँ ही न खो, ओम् जपो, ओम् जपो !
 चादर न लम्बी तान के सो, ओम् जपो, ओम् जपो !



ओम् ही सुख का सार है,
जीवन है, जीवन-आधार है।
प्रीति न उसकी मन से तजो,
ओम् जपो, ओम् जपो !!१!!

चोला यही है कर्म का,
करने को सौदा धर्म का।
इसके सिवाय मार्ग न कोई,
ओम् जपो, ओम् जपो !!२!!

मन की गति संभालिये,
ईश्वर की ओर डालिये।
धोना जो चाहो जीवन को धो,
ओम् जपो, ओम् जपो !!३!!

साथी बना लो ओम् को,
मन में बैठा लो ओम् को।
‘देश’ रहा क्यों समय हो खो,
ओम् जपो, ओम् जपो !!४!!

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

सत्ता तुम्हारी भगवन् ! जग में समा रही है---


सत्ता तुम्हारी भगवन् ! जग में समा रही है।
तेरी सुयश सुगन्धी हर गुल से आ रही है।।



रवि चन्द्र और तारे, तून बनाये सारे।
इन सब पै ज्योति तेरी एक जगमगा रही है।।१।।

विस्तृत वसुन्धरा पर, सागर बनाये तूने।
तह उनकी मोतियों से, चमचमा रही है।।२।।

दिन-रात प्रात-सन्ध्या, मध्याह्न भी बनाये।
ऋतुयें पलट-पलटकर, शोभा दिखा रही है।।३।।

सुन्दर सुगन्धी वाले, फूलों में रंग तेरा।
यह ध्यान फूल-पत्ती तेरा दिला रही है।।४।।

हे ब्रह्म विश्वकर्ता, वर्णन हो तेरा कैसे।
जल-थल में तेरी महिमा, है ईश ! गा रही है।।५।।

भक्ति तुम्हारी भगवन् ! क्योंकर हमें मिलेगी।
माया तुम्हारी स्वामी, हमको भुला रही है।।६।।

‘देवी चरण’ शरण है, तुझसे यही विनय है।
हो दूर यह अविद्या, हमको गिरा रही है।।७।।

तुम हो प्रभु चाँद मैं हूँ चकोरा---


तुम हो प्रभु चाँद मैं हूँ चकोरा।
तुम हो कमल फूल, मैं रस का भौंरा।।



ज्योति तुम्हारी का मैं हूँ पतंगा।
आनन्द-घन तुम हो मै बन का मोरा।।१।।

जैसे है चुम्बक की लोहे से प्रीति।
आकर्षण करे मोह लगातार तोरा।।२।।

पानी बिना जैसे हो मीन व्याकुल।
ऐसे ही तड़पाये तोरा बिछोरा।।३।।

इक बून्द जल का मैं प्यासा हूँ चातक।
अमृत की करो वर्षा हरो ताप मोरा।।४।।

बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

जय जय पिता परम आनन्ददाता--


जय जय पिता परम आनन्ददाता।
जगदादि कारण मुक्ति-प्रदाता।।



अनन्त और अनादि विशेषण हैं तेरे।
तू सृष्टि का स्रष्टा तू धर्ता संहर्ता।।१।।

सूक्ष्म से सूक्ष्म है स्थूल इतना।
कि जिसमें यह ब्रह्माण्ड सारा समाता।।२।।

मैं लालित व पालित हूँ पितृस्नेह का।
यह प्राकृत सम्बन्ध है तुझसे त्राता।।३।।

करो शुद्ध निर्मल मेरी आत्मा को।
करूँ मैं विनय नित्य सायं व प्रातः।।४।।

मिटाओ मेरे भय के आवागमन के।
फिरूँ न मैं जन्म पाता और बिलबिलाता।।५।।

बिना तेरे है कौन दीनन का बन्धु।
कि जिसको मैं अपनी अवस्था सुनाता।।६।।

‘अमी’ रस पिलाओ कृपा करके मुझको।
रहूँ सर्वदा तेरी कीर्ति को गाता।।७।।

तू है सच्चा पिता सारे संसार का ओम् प्यारा--


तू है सच्चा पिता सारे संसार का ओम् प्यारा।
तू ही, तू ही रक्षक हमारा।।

परमात्मा की अद्भुत लीला 


चाँद सूरज सीतारे बनाये पृथ्वी आकाश पर्वत सजाये।
अन्त पाया नहीं तेरा पाया नहीं वार-पारा।।१।।

पक्षीगण राग सुन्दर हैं गाते जीव-जन्तु भी सिर हैं झुकाते।
उसको भी सुख मिला तेरी राह पर चला जो भी प्यारा।।२।।

पाप-पाखण्ड हमसे छुड़ाओ, वेद मार्ग पे हमको चलाओ।
लगे भक्ति में मन करें सन्ध्या-हवन जगत् सारा।।३।।

अपनी भक्ति में मन को लगाना, ‘लाल’ दुःख दूर सारे मिटाना।
दुखिया कंगालों का और धनवालों का तू सहारा।।४।।

तेरे दर को छोड़कर किस दर जाऊँ मैं।



तेरे दर को छोड़कर किस दर जाऊँ मैं।
सुनता मेरी कौन है किसे सुनाऊँ मैं।।

जब से याद भुलाई तेरी, लाखों कष्ट उठायें हैं।
क्या जानूँ इस जीवन अन्दर कितने पाप कमायें हैं।
हूँ शर्मिन्दा आपसे, क्या बतलाऊँ मैं।।¬१।।

मेरे पाप कर्म ही तुझसे प्रीत न करने देते हैं।
कभी जा चाहूँ मिलूँ आपसे घेर मुझे ये लेते हैं।
कैसे स्वामी आपके दर्शन पाऊँ मैं।।२।।

है तू नाथ ! वरों का दाता तुझसे सब वर पाते हैं।
ऋषि-मुनि और योगी सारे तेरे ही गुण गाते हैं।
छींटा दे दो ज्ञान का, होश में आऊँ मैं।।३।।

जो बीती सो बीती लेकिन बाकी उमर सम्भालूँ मैं।
प्रेमपाश में बन्धा आपके गीत प्रेम से गालूँ मैं।

सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

अजब हैरान हूँ भगवन् ! तुम्हें कैसे रिझाऊँ मैं



अजब हैरान हूँ भगवन् ! तुम्हें कैसे रिझाऊँ मैं।
कोई वस्तु नहीं ऐसी जिसे सेवा में लाऊँ मैं।।

करें किस तौर आवाहन कि तुम मौजूद हो हर जो।
निरादर है बुलाने को अगर घण्टी बजाऊँ मैं।।१।।

तुम्हीं हो मूर्ति में भी, तुम्हीं व्यापक हो फूलों में।
भला भगवान् पर भगवान् को कैसे चढ़ाऊँ मैं।।२।।

लगाना भोग कुछ तुमको, यह एक अपमान करना है।
खिलाता है जो सब जग को, उसे क्योंकर खिलाऊँ मैं।।३।।

तुम्हारी ज्योति से रोशन हैं सूरज, चाँद और तारे।
महा अन्धेर है कैसे तुम्हें दीपक दिखाऊँ मैं।।४।।

भुजायें हैं न गर्दन है, न सीना हे न पेशानी।
तुम हो निर्लेप नारायण ! कहाँ चन्दन लगाऊँ मैं।।५।।


बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

नाथ करुणा करो, ये हृदय के हरो, दोष सारे-------



नाथ करुणा करो, ये हृदय के हरो, दोष सारे,
पूज्य पावन प्रभु जी हमारे।

जाप जिसने तुम्हारा किया है,
जन्म उसका सफल कर दिया है।
काम-क्रोधारि खल-दल प्रबल,
मल अरल विघ्न टारे।।¬१।।

पास रहते हो हरदम हमारे,
पर नहीं देख पाते तुम्हें हम।
बुद्धि दो ज्ञान दो भक्ति
का दान दो प्राणप्यारे।।२।।

नील आकाश तम्बू बनाया,
भूमि-सा क्या बिछौना बिछाया।
धन्य करतार कवि, रच दिये
लोक रवि चन्द्र तारे।।३।।

तज तुम्हें कौन के जायें द्वारे,
तुम बिना कौन बिगड़ी संवारे।

यहां गीत अधूरा है किसी के पास हो तो कृपया प्रेषित करें।

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

ओम् नाम का सुमिरन करले कर दे भव से पार तुझे




ओम् नाम का सुमिरन करले कर दे भव से पार तुझे।
कह लिया कितनी बार तुझे।।स्थाई।।


जिस नगरी में वास तेरा यह ठग चोरों की बस्ती है।
लुट जाते हैं बड़े-बड़े यहां फिर तेरी क्या हस्ती है।
जिसको अपना समझ रहा ये धोखा दे संसार तुझे।।1।।


हाथ पकड़कर गली-गली जो मित्र तुम्हारे डोल रहे।
कोयल जैसी मीठी वाणी कदम-कदम पर बोल रहे।
बनी के साथी बिगड़ी में ना गले लगाये यार तुझे।।2।।


दौलत का दीवाना बनकर धर्म कर्म सब भूल रहा।
पाप पुण्य कुछ पता नहीं क्यों नींद नशे में टूल रहा।
ईश्वर को भी नहीं जानता ऐसा चढ़ा खुमार तेरे।।3।।


तुझसे पहले गये बहुत से कितना धन ले साथ गये।
‘लक्ष्मणसिंह बेमोल’ कहे वो सारे खाली हाथ गये।
तू भी खाली हाथ चलेगा देखेंगे नर नार तुझे।।4।।

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

हे प्रभो मेधा बुद्धि दीजै--


ओम्- यां मेधां देवगणाः पितरोश्चोपासते।
तया मामद्य मेधयाग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।।










हे प्रभो मेधा बुद्धि दीजै।
कर्म हमारे पावन कीजै।।

जिसको ध्यावें देव पितर सब।
वह सुमति हमें अब ही दीजै।।

तुम हो ईश्वर अगन सुपावन।
भाव हमारे उज्ज्वल कीजै।।

रचना- नन्द किशोर आर्य 
प्राध्यापक-संस्कृत 

शनिवार, 1 सितंबर 2012

हे प्रभो दूर करो दुरितानि--


ओम्- विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।
यद्भद्रं तन्न आ सुव।।



हे प्रभो दूर करो दुरितानि।
पास रहो हमरे तुम दानी।।

भाव हमारे श्रेष्ठ बनाओ।
श्रेय गहे बनकर के ज्ञानी।।

देव हमारे सविता तुम हो।
रहूँ मैं तुमरे बन ढिग ध्यानी।।



रचना- नन्दकिशोर आर्य
प्राध्यापक संस्कृत गुरुकुल कुरुक्षेत्र

ओम् नाम नित बोल रे मन


ओम् नाम नित बोल रे मन ओम् नाम नित बोल ।
मनवा ओम् नाम नित बोल

ओम् नाम है प्रभु का प्यारा
यही है तेरा तारण हारा
इधर-उधर मत डोल
मनवा ओम् नाम नित बोल।।01।।

मानव का तन तूने पाया
सर्वोत्तम जो गया बताया
चोला ये अनमोल
मनवा ओम् नाम नित बोल।।02।।

जिह्वा से तू ओम् सुमर ले 
भव सागर से पार उतर ले
कटु वचन मत बोल
मनवा ओम् नाम नित बोल।।03।।

ओम् नाम से प्रीत लगाले
मन मन्दिर में जोत जगाले
लगता ना कुछ मोल
मनवा ओम् नाम नित बोल।।04।।

अमृम झरना झर-झर झरता
पीकर क्यों ना पार उतरता
जहर ना इसमें घोल
मनवा ओम् नाम नित बोल।।05।।

मोह माया के बंधन सारे
जीवन तेरा खाक बनारे
बंधन दे सब खोल
मनवा ओम् नाम नित बोल।।06।।

इधर-उधर जो फिरेगा मारा
कभी मिले ना तुझे किनारा
भेद दिया सब खोल
मनवा ओम् नाम नित बोल।।07।।

हीरा जन्म अमोलक पाया
‘‘संजीव’’ तू इसे समझ न पाया
कांच समझ रहा तोल
मनवा ओम् नाम नित बोल।।08।।

रचना- श्री संजीव कुमार आर्य
मुख्य-संरक्षक, गुरुकुल कुरुक्षेत्र