सत्ता तुम्हारी भगवन् ! जग में समा रही है।
तेरी सुयश सुगन्धी हर गुल से आ रही है।।
रवि चन्द्र और तारे, तून बनाये सारे।
इन सब पै ज्योति तेरी एक जगमगा रही है।।१।।
विस्तृत वसुन्धरा पर, सागर बनाये तूने।
तह उनकी मोतियों से, चमचमा रही है।।२।।
दिन-रात प्रात-सन्ध्या, मध्याह्न भी बनाये।
ऋतुयें पलट-पलटकर, शोभा दिखा रही है।।३।।
सुन्दर सुगन्धी वाले, फूलों में रंग तेरा।
यह ध्यान फूल-पत्ती तेरा दिला रही है।।४।।
हे ब्रह्म विश्वकर्ता, वर्णन हो तेरा कैसे।
जल-थल में तेरी महिमा, है ईश ! गा रही है।।५।।
भक्ति तुम्हारी भगवन् ! क्योंकर हमें मिलेगी।
माया तुम्हारी स्वामी, हमको भुला रही है।।६।।
‘देवी चरण’ शरण है, तुझसे यही विनय है।
हो दूर यह अविद्या, हमको गिरा रही है।।७।।
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