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गुरुवार, 17 मार्च 2016

रीत पुरानी गुरुकुल शिक्षा, अति उत्तम है बतलाई।

रीत पुरानी गुरुकुल शिक्षा, अति उत्तम है  बतलाई।
जीवन जहाँ पे सुन्दर बनजा, ऐसी विद्या सिखलाई।।


चार बजे उठ रोज सवेरे, ईश्वर का गुणगान करें।
नितकर्मों से निवृत्त होकर, बाहर को प्रस्थान करें।।
आसन-दौड़-दण्ड-बैठक व अलग-अलग प्राणायाम करें।
वज्जर जैसा गात बने फिर, ऐसे भी व्यायाम करें।।
रगड़-रगड़ के स्नान करें, जिससे जाग उठेगी तरुणाई।।1।।

आत्मा का भोजन है सन्ध्या, रोज सवेरे शाम करें।
ऊँचा बने पवित्र जीवन, काम ये आठों याम करें।।
पौष्टिक-मधु-कीटाणुनाशक, सुगन्धित द्रव्य मिलान करें।
मन्त्रों का उच्चारण करके, यज्ञकर्म का विधान करें।।
बढे़ पराक्रम-बल व बुद्धि, ऐसी विधि है जतलाई।।2।।

तीन समय का सात्त्विक भोजन, तन को पुष्ट बनाता है।
गला-सड़ा व बासी भोजन, मन को दुष्ट बनाता है।।
अन्न प्राण हैं ध्यान में रखकर, इसको न बर्बाद किया।
 जितनी भूख उतना ले भोजन, धरती को आबाद किया।।
शान्तभाव से करना भोजन, उत्तमविधि है कहलाई।।3।।

शिक्षा का उद्देश्य एक है, बालक मानव बन जाये।
गुरु के कुल में रह ब्रह्मचारी, अन्तेवासी कहलाये।।
भाव भेद का गुरु के मन में, रत्ति भर भी ना आये।
समान शिक्षा-वस्त्र-भोजन, हर बालक को दिलवाये।।
राजा या निर्धन का बेटा, हो जगह पर बिठलाई।।4।।

रीत पुरानी गुरुकुल शिक्षा, इसका पुनः उद्धार करो।
गौरवशाली गुण गरिमामय, भारत का आधार भरो।।
लड़का-लड़की पढें अलग से, भूमिका तैयार करो।
राम-कृष्ण-हनुमान बली व दयानन्द तैयार करो।।
पाखण्ड व अन्धविश्वास बढे़, जब गुरुकुल शिक्षा झुठलाई।।5।।

जगद्गुरु का मान मिला था, गुरुकुल की प्रणाली से।
बैठ सांझ को शास्त्र चर्चा, करते हाली पाली से।।
सत्-रज-तम से ईश्वर तक की, यात्रा के पुजारी थे।
’किशोर’ काल से आ’नन्द’ में, सब डूबे यहाँ नरनारी थे।।

धूल जमी थी बहुत काल से, दयानन्द ऋषि ने हटलाई।।6।।


रचनाः- नन्दकिशोर आर्य
प्राध्यापक संस्कृत
गुरुकुल कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

सोमवार, 19 अक्टूबर 2015

जन्म-दिवस पर गाए जाने वाला गीत --------ये बालक होवे बुद्धिमान् हे ईश्वर विनय हमारी।


ये बालक होवे बुद्धिमान् हे ईश्वर विनय हमारी।

यह जीवे सौ वर्षों तक, हो दीन-दुःखी का रक्षक।
बने नीरोग सबल महान् हे ईश्वर विनय हमारी।।1।।

सब मर्म धर्म का जाने, वेदों का पथ पहचाने।
पावे दुनिया में सम्मान हे ईश्वर विनय हमारी।।2।।

पुरुषार्थ करे जीवन में, भरे शुद्ध भावना मन में।
धन पा करे नहीं अभिमान हे ईश्वर विनय हमारी।।3।।

तपधारी परोपकारी, यशवान् राज-अधिकारी।
हो ‘नरदेव‘ आर्य श्रीमान् हे ईश्वर विनय हमारी।।4।।

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

वेद अनुकूल राज बिन सारे--


वेद अनुकूल राज बिन सारे भूमण्डल का नाश हुआ।
भूमण्डल का नाश हुआ मेरे देश का भारी ह्रास हुआ।।स्थाई।।

वेद ज्ञान महाभारत काल से कुछ-कुछ घटना शुरु हुआ।
उन्हीं दिनों से म्हारा आपस में कटना पिटना शुरु हुआ।
ईश्वर भक्ति भूल गये पाखण्ड का रटना शुरु हुआ।
धर्मराज जो कहा करें थे उनका हटना शुरु हुआ।
हटते-हटते इतने हटगे बिल्कुल पर्दाफास हुआ।।1।।

दूध भैंस का ना पीते थे घर-घर गऊ पालते थे।
पीणे से जो दूध बचे था उसका घृत निकालते थे।
सामग्री में मिलाको उसको अग्नि अन्दर डालते थे।
उससे भी जो बच जाता था उसका दिवा बालते थे।
 नहीं तपेदिक जुकाम नजला नहीं किसी के सांस हुआ।।2।।

ना हिन्दू ना मुसलमान ना जैनी सिख ईसाई थे।
महज एक थी मनुष्य की जाति सब वेदों के अनुयायी थे।
पानी दूध की तरह आपस में मिलते भाई-भाई थे।
ना अन्यायी राजा थे ना रिश्वतखोर सिपाही थे।
वेद का सूरज छिपते ही दुनिया में बन्द प्रकाश हुआ।।3।।

सिर पर थे पगड़ी चीरे हाथ में सदा लठोरी थी।
राजा थे सूरजमल से और रानी यहां किशोरी थी।
शादी पच्चीस साल का छोरा सोलह साल की छोरी थी।
‘पृथ्वीसिंह बेधड़क’ कहे यहां नहीं डकती चोरी थी।
डसी तरह से फिर होज्या गर वेदों में विश्वास हुआ।।4।।

रचनाः- स्व. श्री पृथ्वीसिंह जी ‘बेधड़क’

रविवार, 30 अक्टूबर 2011

देखो इतिहास पुराने---


देखो इतिहास पुराने हम गये शिरोमणि माने।
सभी सराहते थे भारत को।।टेक।।
यहाँ सकल विदेशी आते हमसे पढ़कर वो जाते।
गुरु बनाते थे भारत को।।1।।

कोई कमी नहीं थी प्यारे सुख साज यहाँ थे सारे।
स्वर्ग बताते थे भारत को।।2।।

पृथिवी के देश ये सारे कहलाये दास हमारे।
भेंट पहुँचाते थे भारत को।।3।।

हम भरे थे विद्या बल से नर नारी भूमण्डल के।
शीश झुकाते थे भारत को।।4।।

‘ताराचन्द’ चढ़े शिखर पे चमके थे दुनिया भर में।
सभी जन चाहते थे भारत को।।5।।

 लयः- उड़े जब-जब जुल्फें तेरी..........

रचना- स्व. श्री तारचन्द जी ‘वैदिकतोप’


टिप्पणी:-

श्री भगवद्दत्त जी रिसर्चास्कोलर का 'भारत का इतिहास' 
श्री पंडित रघुनंदन जी शर्मा लिखित 'वैदिक संपत्ति' व आर्यसामाजिक दृष्टिकोण वाले ग्रंथों का अध्ययन करें.