उठो दयानंद के सिपाहियों समय पुकार रहा है
देश द्रोह का विषधर फन फैला फुंकार रहा है
उठो विश्व की सूनी आँखें काजल मांग रही हैं
उठो अनेकों द्रुपद सुताएँ आँचल मांग रही हैं
मरघट को पनघट सा कर दो जग की प्यास बुझा दो
भटक रहे जो मरुस्थलों में उनको राह दिखा दो
गले लगालो उनको जिनको जग दुत्कार रहा है//१//
तुम चाहो तो पत्थर को भी मोम बना सकते हो
उठो अनेकों द्रुपद सुताएँ आँचल मांग रही हैं
मरघट को पनघट सा कर दो जग की प्यास बुझा दो
भटक रहे जो मरुस्थलों में उनको राह दिखा दो
गले लगालो उनको जिनको जग दुत्कार रहा है//१//
तुम चाहो तो पत्थर को भी मोम बना सकते हो
तुम चाहो तो खारे जल को सोम बना सकते हो
तुम चाहो तो बंजर में भी बाग लगा सकते हो
तुम चाहो तो पानी में भी आग लगा सकते हो
जातिवाद जग की नस-नस में जहर उतर रहा है //२//
याद करो क्यों भूल गए जो ऋषि को वचन दिया था
शायद वायदा याद नहीं जो आपने कभी किया था
वचन दिया था ओम पताका कभी न झुकने देंगे
हवन कुंड की अग्नि घरों से कभी न बुझने देंगे
लहू शहीदों का गद्दारों को धिक्कार रहा है//३//
कब तक आँख बचा पाओगे आग बहुत फैली है
उजली-उजली दिखने वाली हर चादर मैली है
लेखराम का लहू पुकारे आँख जरा तो खोलो
एक बार मिलकर के सारे दयानंद की जय बोलो
वेदज्ञान का व्यथित सूर्य तुम्हे निहार रहा है//४//
कब तक आँख बचा पाओगे आग बहुत फैली है
उजली-उजली दिखने वाली हर चादर मैली है
लेखराम का लहू पुकारे आँख जरा तो खोलो
एक बार मिलकर के सारे दयानंद की जय बोलो
वेदज्ञान का व्यथित सूर्य तुम्हे निहार रहा है//४//
बहुत सुंदर भाई साहब
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