मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

बीहड़ वन में विचर रहा


बीहड़ वन में विचर रहा था सच्चे शिव का मतवाला।
 छोड़ दिया था टंकारा।।स्थाई।।

सुनी जमाने ना उसकी क्या थी दर्द कहानी।
जानबूझकर हम लोगों न एक न उसकी मानी।
कांच पीसकार दूध में डाला ऊपर जहर मिला डाला।।1।।

फूट-फूटकर हर एक नस से शीशा बाहर आया।
खिला हुआ था फिर भी चेहरा जरा नहीं मुरझाया।
इच्छा पूर्ण हो तेरी भगवन् तू ही मेरा प्रीतम प्यारा।।2।।

कहा ऋषि से जब भक्तों ने कोई पीछे याद बनायें।
भक्तों की सुनकर के वाणी ऋषिराज मुस्काये।
वही चलाना चाहते हो तुम जिससे चाहते छुटकारा।।3।।

वैदिक रीति से दाह करना देह मेरी जल जाये।
मैं चाहता हूँ राख भी मेरी काम देश के आये।
राख उठा खेतों में डालो ‘प्रेमी’ जाने जग सारा।।4।।

रचनाः- श्री शोभाराम जी ‘प्रेमी’