मंगलवार, 29 मार्च 2016

कृपालु भगवन् कृपा हो करते इसी कृपा से---

कृपालु भगवन् कृपा हो करते इसी कृपा से नर तन मिला है।
दयालु भगवन् दया हो करते इसी दया से ये मन मिला है।।टेक।।

अजर, अमर तुम हो सृष्टिकर्ता, अनुपम, अनादि हो जग के भर्ता।
अभय, अजन्मा हो जग के स्वामी, आकार तेरा नहीं मिला है।।01।।

ब्रह्माण्ड रचते हो तुम स्वयं ही, न शक्तिमत्ता तुम जैसी कोई।
कण-कण के योजक हे जगनियन्ता! इच्छा से तेरी हर कण हिला है।।02।।

है कैसी अद्भुत कारीगरी ये, जो कोई देखे होता अचम्भित।
न हाथ सुई लेकर के धागा, मानुष का चोला कैसे सिला है।।03।।

हो करते कतरन तुम न्यारी-न्यारी, विविध रंगों से भरी फुलवारी।
सौरभ सुमन की मैं जाऊँ वारी, चमन का हर गुल सुन्दर खिला है।।04।।

विविध खनिज से भरी है वसुधा, क्या स्वर्ण, चान्दी क्या ताम्र, लौहा।
है प्राणवायु कैसी देती जो जीवन, भण्डार जन-धन सबको मिला है।।05।।

हैं कैसे जलचर रहते ही जल में, अन्दर ही कैसे हैं श्वास लेते।
हैं कुछ उभयचर प्राणी जगत् में, टू इन ये वन में मुझको मिला है।।06।।

है न्यायकारिन्! हो न्याय करते, किया हो जैसा वैसा हो भरते।
ना तोलते कम और ना जियादा, चलता निरन्तर ये सिलसिला है।।07।।

न तुम हो खाते बस हो खिलाते, न तुम हो पीते बस हो पिलाते।
भर-भर के आनन्द का रस पिलाया, आनन्द से मन कमल खिला है।।08।।

पग पाप पथ पर कभी बढे़ ना, पुण्यों की सरणि पर नित बढूँ मैं।
‘नन्दकिशोर’ बढ़ो अभय मन, मुश्किल से मानव का तन मिला है।।09।।

लय-तुम्हीं हो माता पिता तुम्हीं हो तुम्हीं हो बन्धु सखा तुम्हीं हो

रचना:- नन्दकिशोर आर्य
प्राध्यापक संस्कृत
गुरुकुल कुरुक्षेत्र

शुक्रवार, 18 मार्च 2016

मित्रों होली ऐसे मनाना,

मित्रों होली ऐसे मनाना, 
आर्य ग्रन्थों में लिखा हुआ ये सुगन्धित पवन बनाना।

योगिराज श्री कृष्ण जी एवं
महारानी रुक्मिणी जी यज्ञ करते हुए । 
ऋतुओं का परिवर्तन होता, रोग बहुत आते हैं।
बुद्धिजीवी यज्ञों द्वारा रोगों को भगाते हैं।
तुम भी यज्ञ रचाना, मित्रों होली ऐसे मनाना।।1।।

पकी फली होले सब भून-भून खाते हैं।
यज्ञों के अवशेष सारे तन पे लगाते हैं।
सब बाँट-बाँट कर खाना, मित्रों होली ऐसे मनाना।।2।।

गंदी रीत छोड़ सारी अच्छी को अपनायेंगे।
होली की महत्ता एक दूजे को बतलायेंगे।
सब मिलकर खुशी मनाना, मित्रों होली ऐसे मनाना।।3।।

रंगों का त्यौहार रंग प्यार के बिखेरेंगे।
कूड़ा कचरा कीचड़ नहीं किसी पे भी गेरेंगे।
ना उल्टी रीत चलाना, मित्रों होली ऐसे मनाना।।4।।

ऋषियों का संदेश सारे जग को सुनायेंगे।
सबसे सुन्दर राष्ट्र अपने राष्ट्र को बनायेंगे।
सुने ‘आर्यवीर‘ का गाना, मित्रों होली ऐसे मनाना।।5।।

रचना संजीव 'आर्यवीर'

गुरुवार, 17 मार्च 2016

रीत पुरानी गुरुकुल शिक्षा, अति उत्तम है बतलाई।

रीत पुरानी गुरुकुल शिक्षा, अति उत्तम है  बतलाई।
जीवन जहाँ पे सुन्दर बनजा, ऐसी विद्या सिखलाई।।


चार बजे उठ रोज सवेरे, ईश्वर का गुणगान करें।
नितकर्मों से निवृत्त होकर, बाहर को प्रस्थान करें।।
आसन-दौड़-दण्ड-बैठक व अलग-अलग प्राणायाम करें।
वज्जर जैसा गात बने फिर, ऐसे भी व्यायाम करें।।
रगड़-रगड़ के स्नान करें, जिससे जाग उठेगी तरुणाई।।1।।

आत्मा का भोजन है सन्ध्या, रोज सवेरे शाम करें।
ऊँचा बने पवित्र जीवन, काम ये आठों याम करें।।
पौष्टिक-मधु-कीटाणुनाशक, सुगन्धित द्रव्य मिलान करें।
मन्त्रों का उच्चारण करके, यज्ञकर्म का विधान करें।।
बढे़ पराक्रम-बल व बुद्धि, ऐसी विधि है जतलाई।।2।।

तीन समय का सात्त्विक भोजन, तन को पुष्ट बनाता है।
गला-सड़ा व बासी भोजन, मन को दुष्ट बनाता है।।
अन्न प्राण हैं ध्यान में रखकर, इसको न बर्बाद किया।
 जितनी भूख उतना ले भोजन, धरती को आबाद किया।।
शान्तभाव से करना भोजन, उत्तमविधि है कहलाई।।3।।

शिक्षा का उद्देश्य एक है, बालक मानव बन जाये।
गुरु के कुल में रह ब्रह्मचारी, अन्तेवासी कहलाये।।
भाव भेद का गुरु के मन में, रत्ति भर भी ना आये।
समान शिक्षा-वस्त्र-भोजन, हर बालक को दिलवाये।।
राजा या निर्धन का बेटा, हो जगह पर बिठलाई।।4।।

रीत पुरानी गुरुकुल शिक्षा, इसका पुनः उद्धार करो।
गौरवशाली गुण गरिमामय, भारत का आधार भरो।।
लड़का-लड़की पढें अलग से, भूमिका तैयार करो।
राम-कृष्ण-हनुमान बली व दयानन्द तैयार करो।।
पाखण्ड व अन्धविश्वास बढे़, जब गुरुकुल शिक्षा झुठलाई।।5।।

जगद्गुरु का मान मिला था, गुरुकुल की प्रणाली से।
बैठ सांझ को शास्त्र चर्चा, करते हाली पाली से।।
सत्-रज-तम से ईश्वर तक की, यात्रा के पुजारी थे।
’किशोर’ काल से आ’नन्द’ में, सब डूबे यहाँ नरनारी थे।।

धूल जमी थी बहुत काल से, दयानन्द ऋषि ने हटलाई।।6।।


रचनाः- नन्दकिशोर आर्य
प्राध्यापक संस्कृत
गुरुकुल कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

गुरुवार, 21 जनवरी 2016

सत्ता तुम्हारी भगवन्, जग में समा रही है--।

सत्ता तुम्हारी भगवन्, जग में समा रही है।
तेरी दया सुगन्धी हर गुल से आ रही है।।



रवि-चन्द्र और तारे तूने बनाये सारे।
सबमें ये तेरी ज्योति, इक जगमगा रही है।।1।।

विस्तृत वसुन्धरा पर, सागर बनाये तूने।
तह जिनकी मोतियों से, अब चमचमा रही है।।2।।

दिन-रात प्रातः-सायं मध्याह्न भी बनाया।
ऋतु पलट-पलट अपना, करतब दिखा रही है।।3।।

सुन्दर सुगंधी वाले, पुष्पों में रंग तेरा।
यह ध्यान फूल पत्ती, तेरा दिला रही है।।4।।

हे ब्रह्म विश्व कर्ता, वर्णन हो तेरा कैसे।
जल-थल में तेरी महिमा हे ईश छा रही है।।5।।

मेरे मयूर मन के आनन्द घन तुम्हीं हो---

।।स्थाई।।

मेरे मयूर मन के आनन्द घन तुम्हीं हो।
आराध्य प्रभु तुम्ही हो, शोभा सदन तुम्हीं हो।।

।।अन्तरा।।
हैं गोद में गगन के कोटि-कोटि तारे।
मेरे नयन के तारे हे प्राण धन तुम्हीं हो।।1।।

।।अन्तरा।।
मानो चाहे न मानो मुझ मुग्ध भृंग के।
मकरन्द मय सुगन्धित सुरभित सुमन तुम्हीं हो।।2।।

।।अन्तरा।।
अति तममयी निशा में आकुल भ्रमित पथिक को।
पावन प्रकाश पूरित दीपक किरण तुम्हीं हो।।3।।

सोमवार, 4 जनवरी 2016

हँसते हँसते जिया करें, ये ही नौजवानी होती है--।

हँसते हँसते जिया करें, ये ही नौजवानी होती है।
देश धर्म पर मरें जो उनकी अमर कहानी होती है।।


 
वीर भगतसिंह एक रोज कचहरी बीच बुलाया गया।
हँसना यहाँ पर सख्त मना है यों उसको समझाया गया।
मगर हँसी को रोक सका ना भारी उसे दबाया गया।
इसको फाँसी होनी चाहिए ऐसा हुक्म सुनाया गया।
तौहीन अदालत की करना भारी शैतानी होती है।।1।।
 
जज से बोला भगतसिंह आवे हँसने में आनन्द मुझे।
धधक रही है ज्वाला दिल में कभी बुझाई नहीं बुझे।
सदा शहीदों की जय बुलती कायर कमीने नहीं पुजें।
फाँसी पर आ गई हाँसी तो कहाँ मरण ने जगह तुझे।
फाँसी गोली से मरना वीरों की निशानी होती है।।2।।
 
बैरागी बन्दे की घटना जज साहब तेरे याद नहीं।
सिंडासियों से खाल नौंच ली तन से खून की धार बही।
सरिये करके लाल घुसडे़ तन में और बता क्या कसर रही।
बच्चा करके कत्ल मांस की बोटी मुंह में ठूँस दई।
हंस-हंस के बैरागी कहे मुझे ना परेशानी होती है।।3।।
 
जिसने हंसना सीख लिया वो ना जीवन में रोएगा।
वीर बहादुर मिट सकता है स्वाभिमान ना खोएगा।
झूठा चापलूस मिन्नत कर मुंह का थूक बिलोएगा।
ईश्वर का विश्वासी आर्य सन्मार्ग ही टोहेगा।
नित नई वीरों की गाथा नहीं पुरानी होती है।।4।।
 
देश धर्म पर मिटने वाले वीर हमेशा ढेटे हों।
कभी नहीं मिटते हैं जिन्होंने देश के संकट मेटे हों।
सौभाग्य यही शृंगार यही जो मौत के साथ लपेटे हों।
‘खेमचन्द‘ धन्य-धन्य वो जननी जिसके ऐसे बेटे हों।
सहस बढ़ाए बच्चों का वो मां मर्दानी होती है।।5।।

ऐ वतन के नौजवां जा रहा है तू कहाँ---।

ऐ वतन के नौजवां जा रहा है तू कहाँ।
याद कर वो दास्तां जिसको गाता है जहाँ।।



थर-थराती थी जमीं जब कदम धरता था तू।
काल भी हो सामने पर नहीं डरता था तू।
आज भी करते बयां ये जमीं ओर आसमां।।1।।

रहजनों हमलावरों का सिर झुकाया था कभी।
बाजुए कुव्वत में तेरी नभ हिलाया था कभी।
हाथ ले तीरों कमां तू मगर बढ़ता गया।।2।।

तूने रखी लाज अपनी बहनों के सिन्दूर की।
चाल भी चलने न पाई दुष्ट पापी क्रूर की।
उनकी वो खर मस्तियां मेट डाली हस्तियां।।3।।

क्या कहूं बेमोल तेरा आज कैसा ढंग है।
रंग-महफिल में भी तेरा रंग सब बदरंग है।
खो दिया सब हौसला शिवा और प्रताप का।।4।।

उठ खड़ा हो तान सीना, करके तू हुंकार को।
जुल्म पाखंड की मिटादे मजहबी दीवार को।
तेरे चर्चों को बयां फिर करेगा ये जहां।।5।।


अर्योपदेशक श्री लक्ष्मण सिंह 'बेमोल'




जवानों जवानी में चलना संभल के-----।

जवानों जवानी में चलना संभल के।
आती नहीं है ये दोबारा निकल के।।



कठिन यह जवानी की मंजिल है प्यारों।
कभी लड़खड़ा जाओ कुछ दूर चल के।।1।।

विषय रूपी रहजन अनेकों मिलेंगे।
खबरदार कोई न ले जाये छल के।।2।।

सुधर जाये परलोक जिससे यतन कर।
जब आयेगी मृत्यु न जायेगी टल के।।3।।

‘वीरेन्द्र‘ न दिल है लुटाने की वस्तु।
लुटाया यह जिसने रहा हाथ मल के।।4।।

चौधरी वीरेन्द्र कुमार 'वीर'

बनो आर्य खुद और जहाँ को बना दो--

बनो आर्य खुद और जहाँ को बना दो।
जो कहते हो दुनिया को करके दिखा दो।।



प्रभु एक है वेद है उसकी वाणी।
ये पैगाम स्वामी का घर-घर सुना दो।।1।।

न ऋषियों की तहजीब मिट जाए वीरों।
मिटाए जो इसको उन्हें तुम मिटा दो।।2।।

हंसाओ न दुनिया को लड़-लड़ के बाहम।
समाजों में उल्फत की गंगा बहादो।।3।।

जहालत की दीवारें अब तक खड़ी हैं।
उठो और इन्हें देखो जड़ से हिला दो।।4।।

भटकते बहुत पिशना लब फिर रहे हैं।
‘मुसाफिर‘ उन्हें जामे बहदत पिला दो।।5।।

रविवार, 3 जनवरी 2016

ओम् नाम अति प्यारा, मुझे ओम् नाम......

ओम् नाम अति प्यारा, मुझे ओम् नाम अति प्यारा।
जीने का सहारा मेरे, जीने का सहारा।।टेक।। 
ओम् नाम अति प्यारा.......


रोम-रोम में ओम् बसा है, ओम् नाम सुखदायी।
रक्षक-पोषक मात-पिता है, वही बहन और भाई।
सारे सहारे छूट जायें पर, उसका मिले सहारा।।01।।

हर पल ओम् का नाम हो मुख में, यही कामना मन में।
कतरा-कतरा ओममयी हो, जो भी है इस तन में।
तन-मन-धन सब ओम् पे अर्पण, जीवन ओम् पे वारा।।02।।

नेक भावना लेकर मन में, ओम् नाम उच्चारो।
फंसी भंवर में पार हो नैया, सुनलो ओम् के प्यारों।
जग को रचता ओर टिकाता, वही है पालन हारा।।03।।

ओम् नाम आनन्द का सागर, मैं आनन्द पिपासु।
खुशी मिलन की अपार कभी, और कभी छलकते आंसू।
’संजीव’ हृदय में झाँक देख ले, ना फिर मारा-मारा।।04।।


रचनाकार:- संजीव कुमार आर्य 
मुख्य-संरक्षक गुरुकुल कुरुक्षेत्र