गुरुवार, 22 अक्टूबर 2015

तुम कितने वीर हो बच्चों, तुम्हें आओ बताते हैं।


तुम कितने वीर हो बच्चों, तुम्हें आओ बताते हैं।
तुम्हारे अन्दर जो सोए विचारों को जगाते हैं।।

धर्म पर जान देने वाला हकीकत वीर बालक था।
तपस्या भीषण की जिसने ध्रुव भी एक बालक था।
फतहसिंह और जोरावर भी दोनों वीर बालक थे।
दया दुष्टों को ना आयी दीवारों में चिनाते है।।1।।

आरुणी एक बालक था वो तुमने भी सुना होगा।
गुरु का भक्त था कैसा वो तुमने भी सुना होगा।
 गुरु ने आज्ञा दी उसको खेत पर जाओ तुम बेटे।
रात भर नाली में लेटे ना वो पानी बहाते हैं।।2।।

अभिमन्यु वीर बालक ने चक्रव्यूह तोड़ डाला था।
कौरवों के दाँत किये खट्टे किया वो युद्ध निराला था।
शिवा प्रताप का बचपन अनोखा उनका भाला था।
मूलशंकर भी बालक थे जो सारा जग जगाते हैं।।3।।

भक्त प्रहलाद का किस्सा किताबों में भी आता है।
हिरण्यकश्यप पिता जिसको बहुत ज्यादा सताता हैं।
राम का अश्वमेध घोड़ा जब जंगल में आता है।
पकड़ कर बांध लिया घोड़ा, वो लव-कुश याद आते हैं।।4।।

एकलव्य भील बालक में गुरु की श्रद्धा-भक्ति थी।
चलाये तीर अलबेले अनोखी उसमें शक्ति थी।
अन्धे थे माता-पिता जिसके श्रवण भी एक बालक था।
बैठा कर कन्धों पर उनको सर्वत्र घुमाते है।।5।।

तुम्ही में भगत रहते हैं, तुम्हीं में दयानन्द रहते हैं।
तुम्हीं में वीर बन्दा से निडर शमशेर रहते हैं।
चीर लड़का दिया मुँह में अनेकों कष्ट सहते हैं।
दाँत शेरों के गिने जिसने वो भरत भी तुम में रहते हैं।।6।।

संजीव आर्य सबगा बागपत उ प्र

आजादी की दुल्हन मेरे, कफन की चुनरी ओढ़े-।


आजादी की दुल्हन मेरे, कफन की चुनरी ओढ़े।
आयेगी माँ घर तेरे दिन रह गए थोड़े।।

मौत बनेगी मेरी दुल्हन, है अभिशाप गुलामी का बन्धन।
रंग लाएगी कुर्बानी माँ, हिल जाएगा ब्रिटिश शासन।
जन्म दुबारा लेकर के, जंजीर सितम की तोड़े।।1।।

सच माँ नहीं फांसी का डर है, नाशवान् देह जीव अमर है।
अब तो अथेली के ऊपर सिर है, फिर मरने का हमें क्या डर है।
जालिम के कब तलक सहेंगे, नंगे बदन पर कोडे़।।2।।

देश की खातिर मर जायेंगे, मरकर भी फिर हम आयेंगे।
आकर के दुश्मन के ऊपर, बम और गोली बरसायेंगे।
कसम मादरे हिन्द, फिरंगी का जिन्दा नहीं छोडे़ं।।3।।

हम इतने अंजान नहीं माँ, इस जीने में शान नहीं माँ।
मातृभूमि की रक्षा करना, फर्ज है ये एहसान नहीं माँ।
हक चाहते हैं भीख नही हम, ‘कर्मठ‘ हाथ क्यों जोडे़ं।।4।।

श्री बृजपाल जी कर्मठ द्वारा रचित गीत 
लय-लिखने वाले ने लिख डाले................।

बुधवार, 21 अक्टूबर 2015

ऋषि दयानंद की गाथा


ऋषि दयानंद की गाथा
हम आज एक ऋषिराज की पावन कथा सुनाते हैं। 
आनन्दकन्द ऋषि दयानन्द की गाथा गाते हैं।।
हम कथा सुनाते हैं.....
हम एक अमर इतिहास के कुछ पन्ने पलटाते हैं। 
आनन्दकन्द ऋषि दयानन्द की गाथा गाते हैं।
हम कथा सुनाते हैं.....
ऋषिवर को लाख प्रणाम, गुरुवर को लाख प्रणाम।
धर्मधुरन्धर मुनिवर को कोटि-कोटि प्रणाम, कोटि-कोटि प्रणाम।।

भारत के प्रान्त गुजरात में एक ग्राम है टंकारा। 
उस गाँव के ब्राह्मण कुल में जन्मा इक बालक प्यारा।
बालक के पिता थे करसन जी माँ थी अमृतबाई।।
उस दम्पती से हम सबने इक अनमोल निधि पाई।
हम टंकारा की पुण्यभूमि को शीश झुकाते हैं।। 1।।

फिर नामकरण की विधि हुई इक दिन कर्सन जी के घर। 
अमृत बा का प्यारा बेटा बन गया मूलशंकर।।
पाँचवे वर्ष में स्वयं पिता ने अक्षरज्ञान दिया। 
आठवें वर्ष में कुलगुरु ने उपवीत प्रदान किया। 
इस तरह मूलजी जीवनपथ पर चरण बढ़ाते हैं।। 2।।

जब लगा चौदहवाँ साल तो इक दिन शिवरात्रि आई।
उस रात की घटना से कुमार की बुद्धि चकराई।।
जिस घड़ि चढ़े शिव के सिर पर चूहे चोरी-चोरी।
मूलजी ने समझी तुरंत मूर्तिपूजा की कमजोरी। 
हर महापुरुष के लक्षण बचपन में दिख जाते हैं।। 3।।

फिर इक दिन माँ से पुत्र बोला माँ दुनियाँ है फानी।
मैं मुक्ति खोजने जाऊँगा पानी है ये जिन्दगानी।।
चुपचाप सुन रहे थे बेटे की बात पिता ज्ञानी।
जल्दी से उन्होंने उसका ब्याह कर देने की ठानी।।
इस भाँति ब्याह की तैयारी करसन जी कराते हैं।। 4।।

शादी की बात को सुनके युवक में क्रान्तिभाव जागे। 
वे गुपचुप एक सुनसान रात में घर से निकल भागे।।
तेजी से मूलजी में आए कुछ परिवर्तन भारी।
दीक्षा लेकर वो बने शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी।।
हम कभी-कभी भगवान की लीला समझ न पाते हैं।। 5।।

फिर जगह-जगह पर घूम युवक ने योगाभ्यास किया।
कुछ काल बाद पूर्णानन्द ने उनको संन्यास दिया।।
जिस दिवस शुद्ध चैतन्य यहाँ संन्यासी पद पाए।
वो स्वामी दयानन्द सरस्वती उस दिन से कहलाए।।
हम जगप्रसिद्ध इस नाम पे अपना हृदय लुटाते हैं।। 6।।

संन्यास बाद स्वामी जी ने की घोर तपश्चर्या।
सच्चे सद्गुरु की तलाश यही थी उनकी दिनचर्या।।
गुजरात से पहुँचे विन्ध्याचल फिर काटा पन्थ बड़ा।
फिर पार करके हरिद्वार हिमालय का रस्ता पकड़ा।।
अब स्वामीजी के सफर की हम कुछ झलक दिखाते हैं।। 7।।

तीर्थों में गए मेलों में गए वो गए पहाड़ों में।
जंगल में गए झाड़ी में गए वो गए अखाड़ों में।।
हर एक तपोवन तपस्थलि में योगीराज ठहरे।
पर हर मुकाम पर मिले उन्हें कुछ भेद भरे चेहरे।।
साधू से मिले सन्तों से मिले वृद्धों से मिले स्वामी।
जोगी से मिले यतियों से मिले सिद्धों से मिले स्वामी।।
त्यागी से मिले तपसी से मिले वो मिले अक्खड़ों से।
ज्ञानी से मिले ध्यानी से मिले वो मिले फक्कड़ों से।। 
पर कोई जादू कर न सका मन पर स्वामी जी के।
सब ऊँची दूकानों के उन्हें पकवान लगे फीके।। 
योगी का कलेजा टूट गया वो बहुत हताश हुए। 
कोई सद्गुरु न मिला इससे वो बहुत निराश हुए।।
आँखों से छलकते आँसू स्वामी रोक न पाते हैं।। 8।।

इतने में अचानक अन्धकार में प्रकटा उजियाला। 
प्रज्ञाचक्षु का पता मिला इक वृद्ध सन्त द्वारा।।
मथुरा में रहते थे एक सद्गुरु विरजानन्द नामी।
उनसे मिलने तत्काल चल पड़े दयानन्द स्वामी।।
आखिर इक दिन मथुरा पहुँचे तेजस्वी संन्यासी।
गुरु के दर्शन से निहाल हुई उनकी आँखे प्यासी।।
गुरु के अन्तर्चक्षुने पात्र को झट पहचान लिया।
उसकी प्रतिभा को पहले ही परिचय में जान लिया।।
सद्गुरु की अनुमति मांग दयानन्द उनके शिष्य बने।
आगे चलकर के यही शिष्य भारत के भविष्य बने।।
गुरु आश्रम में स्वामी जी ने जमकर अभ्यास किया।
हर विद्या में पारंगत बन आत्मा का विकास किया।। 
जो कर्मठ होते हैं वो मंझिल पा ही जाते हैं।। 9।।

गुरुकृपा से इक दिन योगिराज वामन से विराट बने।
वो पूर्ण ज्ञान की दुनियाँ के अनुपम सम्राट बने।।
सब छात्रों में थे अपने दयानन्द बड़े बुद्धिशाली। 
सारी शिक्षा बस तीन वर्ष में पूरी कर ड़ाली।।
जब शिक्षा पूर्ण हुई तो गुरुदक्षिणा के क्षण आए।
मुट्ठीभर लौंग स्वामी जी गुरु की भेंट हेतु लाए।। 
जो लौंग दयानन्द लाए थे श्रद्धा से चाव से।
वो लौंग लिए गुरुजी ने बड़े ही उदास भाव से।।
स्वामी ने गुरु से विदा माँगी जब आई विदा घड़ी। 
तब अन्ध गुरु की आँख में गंगा-यमुना उमड़ पड़ी।।
वो दृश्य देखकर हुई बड़ी स्वामी को हैरानी। 
पर इतने में ही मुख से गुरु के निकल पड़ी वाणी।।
जो वाणी गुरुमुख से निकली वो हम दोहराते हैं।। 10।।

गुरु बोले सुनो दयानन्द मैं निज हृदय खोलता हूँ।
जिस बात ने मुझे रुलाया है वो बात बोलता हूँ।।
इन दिनों बड़ी दयनीय दशा है अपने भारत की। 
हिल गईं हैं सारी बुनियादें इस भव्य इमारत की।।
पिस रही है जनता पाखण्डों की भीषण चक्की में।
आपस की फूट बनी है बाधा अपनी तरक्की में।।
है कुरीतियों की कारा में सारा समाज बन्दी।
संस्कृति के रक्षक बनें हैं भक्षक हुए हैं स्वच्छन्दी।।
कर दिया है गन्दा धर्म सरोवर मोटे मगरों ने। 
जर्जरित जाति को जकड़ा है बदमाश अजगरों ने।।
भक्ति है छुपी मक्कारों के मजबूत शिकंजों में। 
आर्यों की सभ्यता रोती है पापियों के फंदों में।।
गुरु की वाणी सुन स्वामी जी व्याकुल हो जाते हैं।। 12।।

गुरु फिर बोले ईश्वर बिकता अब खुले बजारों में।
आया है भयंकर परिवर्तन आचार-विचारों में।।
हर चबूतरे पर बैठी है बन-ठन कर चालाकी। 
उस ठगनी ने है सबको ठगा कोई न रहा बाकी।।
बीमार है सारा देश चल रही है प्रतिकूल हवा। 
दिखता है नहीं कोई ऐसा जो इसकी करे दवा।।
हे दयानन्द इस दुःखी देश का तुम उद्धार करो।
मँझधार में है बेड़ा बेटा तुम बेड़ा पार करो।।
इस अन्ध गुरु की यही है इच्छा इस पर ध्यान धरो।
भारत के लिए तुम अपना सारा जीवन दान करो।।
संकट में है अपनी जन्मभूमि तुम जाओ करो रक्षा।
जाओ बेटे भारत के भाग्य का तुम बदलो नक्शा।।
स्वामी जी गुरु की चरणधूल माथे पे लगाते हैं।। 13।।

गुरु की आज्ञा अनुसार इस तरह अपने ब्रह्मचारी।
करने को देश उद्धार चल पड़े बनके क्रान्तिकारी।।
कर दिया शुरु स्वामी जी ने एक धुँआधार दौरा। 
हर नगर-गाँव के सभी कुम्भकर्णों को झँकझोरा।।
दिन-रात ऋषि ने घूम-घूम कर अपना वतन देखा।
जब अपना वतन देखा तो हर तरफ घोर पतन देखा।।
मन्दिरों पे कब्जा कर लिया था मिट्टी के खिलौनों ने।
बदनाम किया था भक्ति को बदनीयत बौनों ने।।
रमणियाँ उतारा करती थी आरती महन्तों की।
वो दृश्य देखती रहती थी टोली श्रीमन्तों की।।
छिप-छिप कर लम्पट करते थे परदे में प्रेमलीला।
सारे समाज के जीवन का ढाँचा था हुआ ढीला।।
यह देख ऋषि सम्पूर्ण क्रान्ति का बिगुल बजाते हैं।।14।।

क्रान्ति का करके ऐलान ऋषि मैदान में कूद पड़े।
उनके तेवर को देख हो गए सबके कान खड़े।।
इक हाथ में था झंडा उनके इक हाथ में थी लाठी। 
वो चले बनाने हर हिन्दू को फिर से वेदपाठी।।
हरिद्वार में कुम्भ का मेला था ऐसा अवसर पाकर।
पाखण्ड खण्डनी ध्वजा गाड़ दी ऋषि ने वहाँ जाकर।।
फिर लगे घुमाने संन्यासी जी खण्डन का खाण्डा।
कितने ही गुप्त बातों का उन्होंने फोड़ दिया भाँडा।।
धज्जियाँ उड़ा दी स्वामी ने सब झूठे ग्रन्थों की।
बखिया उधेड़ कर रख दी सारे मिथ्या पन्थों की।।
ऋषिवर ने तर्क तराजू पर सब धर्मग्रन्थ तोले। 
वेदों की तुलना में निकले वो सभी ग्रन्थ पोले।।
वेदों की महत्ता स्वामी जी सबको समझाते हैं।। 15।।

चलती थी हुकूमत हर तीरथ में लोभी पण्ड़ों की।
स्वामी ने पोल खोली उनके सारे हथकण्ड़ों की।।
आए करने ऋषि का विरोध गुण्डे हट्टे-कट्टे। 
पर अपने वज्रपुरुष ने कर दिए उनके दाँत खट्टे।।
दुर्दशा देश की देख ऋषि को होती थी ग्लानि।
पुरखों की इज्जत पर फेरा था लुच्चों ने पानी।।
बन गए थे देश के देवालय लालच की दुकानें। 
मन्दिरों में राम के बैठी थीं रावण की सन्तानें।।
स्वामी ने हर भ्रष्टाचारी का पर्दाफाश किया। 
दम्भियों पे करके प्रहार हरेक पाखण्ड का नाश किया।।
लाखों हिन्दू संगठित हुए वैदिक झंडे के तले।
जलनेवाले कुछ द्वेषी इस घटना से बहुत जले।।
इस तरह देश में परिवर्तन स्वामी जी लाते हैं।। 16।।

कुछ काल बाद स्वामी ने काशी जाने की ठानी। 
उस कर्मकाण्ड की नगरी पर अपनी भृकुटि तानी।।
जब भरी सभा में स्वामी की आवाज बुलन्द हुई। 
तब दंग हो गए लोग बोलती सबकी बन्द हुई।।
वेदों में मूर्तिपूजा है कहाँ स्वामी ने सवाल किया।
इस विकट प्रश्न ने सभी दिग्गजों को बेहाल किया।।
काशीवालों ने बहुत सिर फोड़ा की माथापच्ची। 
पर अन्त में निकली दयानन्द जी की ही बात सच्ची।।
मच गया तहलका अभिमानी धर्माधिकारियों में। 
भारी भगदड़ मच गई सभी पंडित-पुजारियों में।
इतिहास बताता है उस दिन काशी की हार हुई। 
हर एक दिशा में ऋषिराजा की जय-जयकार हुई।।
अब हम कुछ और करिश्में स्वामी के बतलाते हैं।। 17।।

उन दिनों बोलती थी घर-घर में मर्दों की तूती।
हर पुरुष समझता था औरत को पैरों की जूती।।
ऋषि ने जुल्मों से छुड़वाया अबला बेचारी को।
जगदम्बा के सिंहासन पर बैठा दिया नारी को।।
बदकिस्मत बेवाओं के भाग भी उन्होंने चमकाए।
उनके हित नाना नारी निकेतन आश्रम खुलवाए।।
स्वामी जी देख सके ना विधवाओं की करुण व्यथा।
करवा दी शुरु तुरन्त उन्होंने पुनर्विवाह प्रथा।।
होता था धर्म परिवर्तन भारत में खुल्लम-खुल्ला।
जनता को नित्य भरमाते थे पादरी और मुल्ला।।
स्वामी ने उन्हें जब कसकर मारा शुद्धि का चाँटा। 
सारे प्रपंचियों की दुनियाँ में छा गया सन्नाटा।।
फिर भक्तों के आग्रह से स्वामी मुम्बई जाते हैं।। 18।।

भारत के सब नगरों में नगर मुम्बई था भाग्यशाली।
ऋषि जी ने पहले आर्य समाज की नींव यहीं डाली।।
फिर उसी वर्ष स्वामी से हमें सत्यार्थ प्रकाश मिला। 
मन पंछी को उड़ने के लिए नूतन आकाश मिला।।
सदियों से दूर खड़े थे जो अपने अछूत भाई। 
ऋषि ने उनके सिर पर इज्जत की पगड़ी बँधवाई।।
जो तंग आ चुके थे अपमानित जीवन जीने से। 
उन सब दलितों को लगा लिया स्वामी ने सीने से।।
मुम्बई के बाद इक रोज ऋषि पंजाब में जा निकले।
उनके चरणों के पीछे-पीछे लाखों चरण चले।।
लाखों लोगों ने मान लिया स्वामी को अपना गुरु।
सत्संग कथा प्रवचन कीर्तन घर-घर हो गए शुरु।।
स्वामी का जादू देख विरोधी भी चकराते हैं।। 19।।

पंजाब के बाद राजपूताना पहुँचे नरबंका। 
देखते-देखते बजा वहाँ भी वेदों का डंका।।
अगणित जिज्ञासु आने लगे स्वामी की सभाओं में।
मच गई धूम वैदिक मन्त्रों की दसों दिशाओं में।।
सब भेद भाव की दीवारों को चकनाचूर किया। 
सदियों का कूड़ा-करकट स्वामी जी ने दूर किया।।
ऋषि ने उपदेश से लाखों की तकदीर बदल डाली। 
जो बिगड़ी थी वर्षों से वो तस्वीर बदल ड़ाली।।
फिर वीर भूमि मेवाड़ में पहुँचे अपने ऋषि ज्ञानी।
खुद उदयपुर के राणा ने की उनकी अगुवानी।।
राणा ने उनको देनी चाही एकलिंग जी की गादी।
पर वो महन्त की गादी ऋषि ने सविनय ठुकरा दी।।
इतने में जोधपुर का आमन्त्रण स्वामी पाते हैं।। 20।।

उन दिनों जोधपुर के शासन की बड़ी थी बदनामी।
भक्तों ने रोका फिर भी बेधड़क पहुँच गए स्वामी।।
जसवतसिंह के उस राज में था दुष्टों का बोलबाला।
राजा था विलासी इस कारण हर तरफ था घोटाला।।
एक नीच तवायफ बनी थी राजा के मन की रानी।।
थी बड़ी चुलबुली वो चुड़ैल करती थी मनमानी। 
स्वामी ने राजा को सुधारने किए अनेक जतन।।
पर बिलकुल नहीं बदल पाया राजा का चाल-चलन।।
कुलटा की पालकी को इक दिन राजा ने दिया कन्धा।
स्वामी को भारी दुःख हुआ वो दृश्य देख गन्दा।।
स्वामी जी बोले हे राजन् तुम ये क्या करते हो। 
तुम शेर पुत्र होकर के इक कुतिया पर मरते हो।।
स्वामी जी घोर गर्जन से सारा महल गुँजाते हैं।। 21।।

राजा ने तुरत माफी माँगी होकर के शर्मिन्दा। 
पर आग-बबूला हो गई वेश्या सह न सकी निन्दा।।
षडयन्त्र रचा ऋषि के विरुद्ध कुलटा पिशाचिनी ने।
जहरीला जाल बिछाया उस विकराल साँपिनी ने।।
वेश्या ने ऋषि के रसोइये पर दौलत बरसा दी। 
पाकर सम्पदा अपार वो पापी बन गया अपराधी।।
सेवक ने रात में दूध में गुप-चुप संखिया मिला दिया।
फिर काँच का चूरा ड़ाल ऋषिराजा को पिला दिया।।
वो ले ऋषि ने पी लिया दूध वो मधुर स्वाद वाला। 
पर फौरन स्वामी भाँप गए कुछ दाल में है काला।।
अपने सेवक को तुरन्त ही बुलवाया स्वामी ने।
खुद उसके मुख से सकल भेद खुलवाया स्वामी ने।।
पश्चातापी को महामना नेपाल भगाते हैं।। 22।।

आए डाक्टर आए हकीम और वैद्यराज आए। 
पर दवा किसी की नहीं लगी सब के सब घबराए।।
तब रुग्ण ऋषि को जोधपुर से ले जाया गया आबू। 
पर वहाँ भी उनके रोग पे कोई पा न सका काबू।।
आबू के बाद अजमेर उन्हें भक्तों ने पहुँचाया। 
कुछ ही दिन में ऋषि समझ गए अब अन्तकाल आया।।
वे बोले हे प्रभू तूने मेरे संग खूब खेल खेला। 
तेरी इच्छा से मैं समेटता हूँ जीवनलीला।।
बस एक यही बिनति है मेरी हे अन्तर्यामी।
मेरे बच्चों को तू सँभालना जगपालक स्वामी।।
जब अन्त घड़ि आई तो ऋषि ने ओ3म् शब्द बोला।
केवल ओम् शब्द बोला। 
फिर चुपके से धर दिया धरा पर नाशवान् चोला।।
इस तरह ऋषि तन का पिंजरा खाली कर जाते हैं।। 23।।

संसार के आर्यों सुनो हमारा गीत है इक गागर। 
इस गागर में हम कैसे भरें ऋषि महिमा का सागर।।
स्वामी जी क्या थे कैसे थे हम ये न बता सकते। 
उनकी गुण गरिमा अल्प समय में हम नहीं गा सकते।।
सच पूछो तो भगवान का इक वरदान थे स्वामी जी।
हर दशकन्धर के लिए राम का बाण थे स्वामी जी।।
प्रतिभा के धनि एक जबरदस्त इन्सान थे स्वामी जी।
हिन्दी हिन्दू और हिन्दुस्थान के प्राण थे स्वामी जी।।
क्या बर्मा क्या मॉरिशस क्या सुरिनाम क्या फीजी। 
इन सब देशों में विद्यमान् हैं आज भी स्वामी जी।।
केनिया गुआना त्रिनिदाद सिंगापुर युगण्डा। 
उड़ रहा सब जगह बड़ी शान से आर्यों का झंड़ा।।
हर आर्य समाज में आज भी स्वामी जी मुस्काते हैं।। 24।।
ओ३म्

प्रणब भट्टाचार्य जी के फेसबुक से साभार 

मंगलवार, 20 अक्टूबर 2015

ये सारी बीमारी है आर्यों के राज बिना--।

ये सारी बीमारी है आर्यों के राज बिना।

आर्यों का राज हो तो सच्चे न्यायकारी हो।
मनु का कानून मानें दुष्टों को दण्ड भारी हो।
यूं डाकू चोर जुआरी-हैं आर्यों के राज बिना।।1।।

गुरुकुलों में शिक्षा पाएं पढ़कर वेदाचारी हों।
ब्रह्मचर्य का पालन करें बलकारी बलधारी हों।
ये नामर्दी सारी हैं आर्यों के राज बिना।।2।।

सन्ध्या-हवन करें प्रतिदिन सच्चे ओम् पुजारी हों।
दूध-दही-घी-मक्खन खाएं पक्के परोपकारी हों।
ये शराबी मांसाहारी हैं आर्यों के राज बिना।।3।।

गोमाता के भक्त बनें यहाँ दिलीप कृष्ण मुरारी हों।
महाराजा खुद गाय चरावें नदी दूध की जारी हों।
यहाँ चलती रोज कटारी हैं आर्यों के राज बिना।।4।।

एक ईश्वर के भक्त बनें सब सारी दूर खवारी हों।
मजहबी झगड़े सब मिट जावें मोक्ष के अधिकारी हों।
ये मोडे मठधारी हैं आर्यों के राज बिना।।5।।

शुद्ध भावों से दान करें ऐसे गृहस्थाचारी हों।
ऋषि-मुनियों का सत्कार हो पण्डित वेदाचारी हों।
ये पण्डे पोप-पुजारी हैं आर्यों के राज बिना।।6।।

‘ईश्वरसिंह’ की कथा भजन हों रंगत न्यारी-न्यारी हों।
नित्यानन्द प्रचार करे समझदार नर-नारी हों।
ये नकली प्रचारी हैं आर्यों के राज बिना।।7।।

सोमवार, 19 अक्टूबर 2015

वो मुर्दा है जो स्वाभिमानी नहीं है------।


वो मुर्दा है जो स्वाभिमानी नहीं है।
जिस इन्सां की आँखों में पानी नहीं है।।

विधाता मेरी कौम को हो गया क्या। 
कि जिन्दा तो है पर जिन्दगानी नहीं है।।1।।

बुजुर्गों हकीकत बयाँ कर रहा हूँ।
ये किस्सा नहीं और कहानी नहीं है।।2।।

लगाते हैं हर एक की जय के नारे।
किसी की कोई बात मानी नहीं है।।3।।

उठे तो उठे कैसे वो कौम जिसके।
जवानों में जोशे जवानी नहीं है।।4।।

उठेंगे तो तूफान बनकर उठेंगे।
अभी हमने उठने की ठानी नहीं है।।5।।

अरे गाफिलों एक हो जाओ मिलकर।
अगर मार गैरों की खानी नहीं है।।6।।

हैं हिन्दू भी मुस्लिम भी हिन्दोस्ताँ में।
मगर कोई हिन्दुस्तानी नहीं है।।7।।

‘मुसाफिर‘ न कर मरने जीने का खटका।
अजर और अमर है तू फानी नहीं है।।8।।

जय-जय ऋषिवर हे दयानन्द जय-जय------|


जय-जय ऋषिवर हे दयानन्द जय-जय।
कर आर्य जाति गौरव बखान, वैदिक युग का कर कीर्तिमान।
ऋषि सन्तति कर दी सावधान, तुमने फिर हे आनन्दकन्द जय-जय।।

ठग प्रपंचियों के विकट टोल, अमृत में विष थे रहे घोल।
छाया घनघोर अंधकार मिथ्या पंथन को, सुध-बुध ईश्वरीय ज्ञान बिसराया था।
वैदिक सभ्यता को अस्त-व्यस्त करने के कारण, पश्चिमि कुसभ्यता ने रंग दिखलाया था।
गऊ विधवा अनाथ, त्राहि-त्राहि करते थे, धर्म और कर्म चैके चूल्हे में समाया था।
रक्षक नहीं था कोई भक्षक बने थे सारे, ऐसे घोर संकट काटे कुफंद जय-जय।
जय वेद धर्म की बोल खोलकर पोल संकट काटे कुफंद जय-जय।।1।।

गुरुदेव तुम्हारे गुण अनेक मुख में है कवि के गिरा एक।
पुष्प के पराग पे ज्यों भृंग की उमंग आज, चन्द्र पर चकोर बार-बार बलिदान है।
दीप ही ज्यों लक्ष्य है पतंग को महान् एक, दीन के हृदय में प्रभुवन्दना की तान है।
सूर रसखान और तुलसी के छन्दन में, राम-कृष्ण चर्चा की अनोखी पहचान है।
निर्धन कवि कोऊ काहु पै गुमान करे, मोहे अपने देव दयानन्द पै गुमान है।
प्रतिभा न पास विद्या विवके किस विध गुण गाए ‘प्रकाशचन्द‘ जय-जय।।2।।

कविरत्न प्रकाशचंद्र जी 

जन्म-दिवस पर गाए जाने वाला गीत --------ये बालक होवे बुद्धिमान् हे ईश्वर विनय हमारी।


ये बालक होवे बुद्धिमान् हे ईश्वर विनय हमारी।

यह जीवे सौ वर्षों तक, हो दीन-दुःखी का रक्षक।
बने नीरोग सबल महान् हे ईश्वर विनय हमारी।।1।।

सब मर्म धर्म का जाने, वेदों का पथ पहचाने।
पावे दुनिया में सम्मान हे ईश्वर विनय हमारी।।2।।

पुरुषार्थ करे जीवन में, भरे शुद्ध भावना मन में।
धन पा करे नहीं अभिमान हे ईश्वर विनय हमारी।।3।।

तपधारी परोपकारी, यशवान् राज-अधिकारी।
हो ‘नरदेव‘ आर्य श्रीमान् हे ईश्वर विनय हमारी।।4।।

गुरुवार, 15 अक्टूबर 2015

मां-बाप कहाने वालों औलाद बनाना सीख लो ।


ओ मां-बाप कहाने वालों औलाद बनाना सीख लो।

बच्चा पैदा तो जग में हर एक जानवर करता है।
खाता पीता सो जाता और डरता जीता मरता है।
दुनिया में देखो भालो औलाद बनाना सीख लो।।1।।

यही काम किए तो जग में पशु मनुष्य में भेद नहीं।
वे नर पशुओं से गिर जाते जो पढे़ शास्त्र-वेद नहीं।
यूं जन्म लजानेवालों औलाद बनाना सीख लो।।2।।

माता शत्रु पिता है वैरी जो औलाद पढ़ावे ना।
जैसे बगुला हंस-सभा में बैठ के शोभा पावे ना।
यूं शर्मानेवालों औलाद बनाना सीख लो।।3।।

समझो जहर पिलाता है जो प्यार करे संतान को।
लाड प्यार से निर्भय होकर देते दुःख जहान को।
यूं जहर पिलानेवालों औलाद बनाना सीख लो।।4।।

हुक्का सिगरेट बीड़ी पीते कहीं पशु चरवाते हो।
क्रिकेट, टी.वी. दिखा-दिखाकर इन्हें बदमाश बनाते हो।
पीछे पछतानेवालों औलाद बनाना सीख लो।।5।।

क्या दाता क्या शूरवीर क्या देशभक्त सन्तान करो।
कायर क्रूर कुकर्मी जनकर दुनिया का न नाज बिरान करो।
तादाद बढ़ानेवालों औलाद बनाना सीख लो।।6।।

बचपन में शादी कर-करके मत इनको कमजोर करो।
‘नित्यानन्द’ कहे पछताओगे जल्दी इस पर गौर करो।
ओ सुनने-सुनानेवालों औलाद बनाना सीख लो।।7।।

ओ सुन ले शराबी क्यों करता खराबी ।


ओ सुन ले शराबी क्यों करता खराबी।
यूं दारू पीने में तो तेरी खेर नहीं।

छोटे-छोटे बालक तेरे उनसे प्यार नहीं है।
फिरे अवारा गलियों में जैसे घरबार नहीं है।
तुम घर को संभालो उन बालकों को पालो।
अरे बच्चों से तो तेरा कोई बैर नहीं।।1।।

धरती जेवर बेच दिए और इज्जत सारी खोई।
नहीं उधार पैसा मिलता आटा दे ना कोई।
तू मेरी मान जाता ना रोता दुःख पाता।
मैं तेरा ही तो भाई हूँ कोई गैर नहीं।।2।।

कभी नशे में चलते-चलते गलियों में पड़ता है।
कभी-कभी प्रचार में आकेे ‘रामरख‘ से लड़ता है।
जब होती है पिटाई फिर नानी याद आई।
धरती पर तेरा टिकता कोई पैर नहीं।।3।।



लय-ये पर्दा हटा दो जरा..................।

इस तरह बनेगा स्वर्ग सभी संसार-----|


इस तरह बनेगा स्वर्ग सभी संसार रे.....।

सबसे पहले आर्य नेता संसद में भिजवाये जाएं।
भ्रष्टाचारी खोज-खोज जहाजों में बिठाए जाएं।
ले जाकर समुन्दर बीच बांधकर डुबाए जाएं।
मद्य वस्तुओं के ठेके बन्द सब कराए जाएं।
पीते जो शराब उल्टे पेड़ों के लटकाए जाएं।
मांस खानेवाले गरम तेल में पकाए जाएं।
पके हुए तन के लगभग टुकड़े सौ करवाए जाएं।
चील काग कुत्ते आदि जीवों को खिलाए जाएं।
सुलफा सट्टेबाजों पर भी पड़े गजब की मार रे।।1।।

करते जो ब्लैक गरम खम्भों के बंधवाए जाएं।
गिनकर के पचास कोडे़ पीठ पर लगवाए जाएं।
जेब कतरे चोर लुटेरे चीरकर सुखाए जाएं।
लुच्चे गुण्डे बेईमान गोली से उड़ाए जाएं।
चीजों में मिलावट करें जेल में भिजवाए जाएं।
डांडी मारे कमती तोलें खोद के गडवाए जाएं।
झूठी जो गवाही देते कोल्हू में पिलवाए जाएं।
पंच जो अन्याय करते होली में जलाए जाएं।
चुगलखोर हों खत्म करें जो दिन-रात बिगार रे।।2।।

डाकू और बागी के पांव घुटनों से कटवाए जाएं।
मुस्टण्डे भिखारी सब काम पे लगवाए जाएं।
कामी नर-नारी आधे धरती में गडवाए जाएं।
रिश्वतखोर लोगों के तन आरे से कटवाए जाएं।
नंगे तन पर बेंत मारकर कुत्ते पीछे छुड़वाए जाएं।
धोखेबाज लफंगे प्लेटफार्म पे ले जाए जाएं।
आवे जब तूफानमेल आगे सब गिराए जाएं।
सांगी और नचकैयों का करे कोई नहीं सत्कार रे।।3।।

जुआरी मटकेबाज हवालात में पहुंचाए जाएं।
बीड़ी पीनेवालों के मुंह इंजन से बंधवाए जाएं।
हुक्का पीनेवालों के मुंह में खूंटे ठुकवाए जाएं।
भांग पीनेवालों पक्के रोड पे सुलवाए जाएं।
मालभरे ठेले उनपे सारे दिन घुमाए जाएं।
बूचड़खाने तोड़ प्राण गऊओं के बचाए जाएं।
अलग-अलग लड़का-लड़की गुरुकुल में पढ़ाए जाएं।
कहे ‘नरदेव’ सुखी हों फिर दुनिया के नर-नार रे।।4।।

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2015

वह कौन आया, जाग उठी है--------|



वह कौन आया, जाग उठी है दुनिया जिसकी बात से।
वेद की पुस्तक हाथ में लेकर निकला था गुजरात से।।

काली घटायें छाई थी, मानवता मुरझाई थी।
ढोंगियों ने ढोंग रचाकर खूब करी मन चाही थी।
सच्चाई का सूरज निकला, मन भावन प्रभात से।।1।।

अनाथ विधवा रोते थे, रोज विधर्मी होते थे।
धर्म के ठेकेदार यहाँ पर बीज फूट का बोते थे।
सबको गले लगाया, तोड़ बन्धन जाति-पाति के।।2।।

क्या कहिये उस आने को, आया था समझाने को।
प्यार किया था ‘पथिक’ ऋषि ने जाने व अनजाने को।
विष के प्याले पिये ऋषि ओ जाति तेरे हाथ से ।।3।।

मंगलवार, 6 अक्टूबर 2015

कुल की परम्परा मर्यादा-----|


कुल की परम्परा मर्यादा निभाये जाना बेटी..

तुम सास-ससुर घर जाना, उस घर का मान बढाना।
अपने बचपन का संसार भुलाए जाना बेटी।।1।।

सब काम समय पर करना, सब चीज जगह पर धरना।
घर में शिक्षा व सुविचार फैलाए जाना बेटी।।2।।

सास-ससुर की सेवा, है सब सुखों की देवा।
अपनी खुशियों का संसार बढाए जाना बेटी।।3।।

छोटों पर नेह दिखाना, और बड़ों का मान बढाना।
घर में ये उत्तम व्यवहार, निभाए जाना बेटी।।4।।

घर में कोई अतिथि आये, वो भूखा कभी न जाए।
उसको भोजन व जलपान कराए जाना बेटी।।5।।

मत फैशन में फंस जाना, मत फूहडपन दर्शाना।
उत्तम गृहिणी का शृंगार सजाए जाना बेटी।।6।।

सोमवार, 5 अक्टूबर 2015

इतने पतन के बाद भी-----------|


इतने पतन के बाद भी आज भी जग सारा। 
कहता है भारत प्यारा।।
सदीयों तक गर्दिश में जिसका डूबा रहा सितारा।

ये सच हम बनकर रहे चक्रवर्ती सम्राट।
आलस और प्रमाद में खो बैठे सब ठाठ।
फूट अविद्या कलह ने घर के शिर का मुकुट उतारा।।1।।


भारत में महाभारत की ऐसी छिड़ी लड़ाई
दादा से पोता लड़ा भाई से लडे़ भाई
गुरु को चेलों ने बाणों से बीन्ध-बीन्ध कर मारा।।2।।


जर-जर ही होता गया दिन पर दिन ये देश
वैदिक धर्म को छोड़कर बने भिक्षुक आर्य नरेश।
दुर्दिन था जब अशोक ने बोद्धों का मत स्वीकारा।।3।।

तक्षशिला नालन्दा शिक्षा के केन्द्रों पर।
निर्बलता यहां जानकर यवन बने हमलावर।
काम न आया ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ का नारा।।4।।


जम गई जडें विनाश की नीचे गिरे शिखर से
बनते विधर्मी हो गये लालच से कुछ डर से।
सदियों बाद प्रताप शिवा ने गैरत को ललकारा।।5।।


यवन गये अंग्रेज ने ताज और तख्त संभाला
भड़की ऋषि दयानन्द से फिर जौहर की ज्वाला।
आजादी का बिगुल बजा हर फूल बना अंगारा।।6।।


स्वामी की हुंकार से सोते सिंह जगे।
पन्ने के फिर इतिहास के खून से गये रंगे।
बलिदानों ने आजादी को दे दिया जन्म दोबारा।।7।।

अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश ने खोली सब पोल।
हल चल सी मचने लगी भगे पाखण्डियों के टोल।
कर्मठ संकट के बादल को छिन्न-भिन्न कर टारा।।8।।

श्री बृजपाल जी 'कर्मठ'

प्रभु तुम अणु से भी सूक्ष्म हो------|



प्रभु तुम अणु से भी सूक्ष्म हो, प्रभु तुम गगन से विशाल हो।
मैं मिसाल दूं तुम्हें कौनसी, दुनिया में तुम बेमिसाल हो।।

हर दिल में तेरा धाम है, और न्याय ही तेरा काम है।
सबसे बड़ा तेरा नाम है, जगनाथ हो जगपाल हो।।1।।

तुम साधकों की हो साधना, या उपासकों की उपासना।
किसी भक्त की मृदु भावना या किसी कवि का खयाल हो।।2।।

मिले सूर्य को तेरी रोशनी खिले चांद में तेरी चांदनी।
सब पर दया तेरी पावनी प्रभु तुम तो दीन दयाल हो।।3।।

तुझ पर किसी का ना जोर है, तेरा राज्य ही सभी ओर है।
तेरे हाथ सबकी ही डोर है तुम्ही जिन्दगी तुम्ही ताल है।।4।।

जो खत्म ना हो वो किताब हो बेसुमार हो बेहिसाब हो।
जिस का कहीं ना जवाब हो उलझा हुआ वो सवाल हो।।5।।

कोई नर तुझे न रिझा सका तेरा पार कोई न पा सका।
न ‘पथिक’ वो गीत ही गा सका जिसमें तेरा सुर ताल हो।।6।।

श्री सत्यपाल जी 'पथिक' आर्य भजनोपदेशक