जय-जय ऋषिवर हे दयानन्द जय-जय।
कर आर्य जाति गौरव बखान, वैदिक युग का कर कीर्तिमान।
ऋषि सन्तति कर दी सावधान, तुमने फिर हे आनन्दकन्द जय-जय।।
ठग प्रपंचियों के विकट टोल, अमृत में विष थे रहे घोल।
छाया घनघोर अंधकार मिथ्या पंथन को, सुध-बुध ईश्वरीय ज्ञान बिसराया था।
वैदिक सभ्यता को अस्त-व्यस्त करने के कारण, पश्चिमि कुसभ्यता ने रंग दिखलाया था।
गऊ विधवा अनाथ, त्राहि-त्राहि करते थे, धर्म और कर्म चैके चूल्हे में समाया था।
रक्षक नहीं था कोई भक्षक बने थे सारे, ऐसे घोर संकट काटे कुफंद जय-जय।
जय वेद धर्म की बोल खोलकर पोल संकट काटे कुफंद जय-जय।।1।।
गुरुदेव तुम्हारे गुण अनेक मुख में है कवि के गिरा एक।
पुष्प के पराग पे ज्यों भृंग की उमंग आज, चन्द्र पर चकोर बार-बार बलिदान है।
दीप ही ज्यों लक्ष्य है पतंग को महान् एक, दीन के हृदय में प्रभुवन्दना की तान है।
सूर रसखान और तुलसी के छन्दन में, राम-कृष्ण चर्चा की अनोखी पहचान है।
निर्धन कवि कोऊ काहु पै गुमान करे, मोहे अपने देव दयानन्द पै गुमान है।
प्रतिभा न पास विद्या विवके किस विध गुण गाए ‘प्रकाशचन्द‘ जय-जय।।2।।
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कविरत्न प्रकाशचंद्र जी |
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