वो मुर्दा है जो स्वाभिमानी नहीं है।
जिस इन्सां की आँखों में पानी नहीं है।।
विधाता मेरी कौम को हो गया क्या।
कि जिन्दा तो है पर जिन्दगानी नहीं है।।1।।
बुजुर्गों हकीकत बयाँ कर रहा हूँ।
ये किस्सा नहीं और कहानी नहीं है।।2।।
लगाते हैं हर एक की जय के नारे।
किसी की कोई बात मानी नहीं है।।3।।
उठे तो उठे कैसे वो कौम जिसके।
जवानों में जोशे जवानी नहीं है।।4।।
उठेंगे तो तूफान बनकर उठेंगे।
अभी हमने उठने की ठानी नहीं है।।5।।
अरे गाफिलों एक हो जाओ मिलकर।
अगर मार गैरों की खानी नहीं है।।6।।
हैं हिन्दू भी मुस्लिम भी हिन्दोस्ताँ में।
मगर कोई हिन्दुस्तानी नहीं है।।7।।
‘मुसाफिर‘ न कर मरने जीने का खटका।
अजर और अमर है तू फानी नहीं है।।8।।
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