शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

उठो देश के वीर जवानों, जग को आर्य बनाना है---


उठो देश के वीर जवानों, जग को आर्य बनाना है।
कृण्वन्तो विश्वमार्यमका वैदिक नाद गुंजाना है।।टेक।।




आर्य समाज है माता अपनी, दयानन्द पिता हमारा है।
मात-पिता की आज्ञापालन करना फर्ज हमारा है।
दिया है जीवन पावन हमको, इसका कर्ज चुकाना है।।01।।

आने वाले तूफानों से, आर्यवीरों लड़ना है।
हाथ में लेकर ओम् पताका, निशिदिन आगे बढ़ना है।
वेद वाणी से नवयुवकों का सोया साहस जगाना है।।02।।

आर्यवीर दल देश का रक्षक, इतिहास गवाही देता है।
देव, पितृ और ऋषि के ऋण को, कंधों ऊपर लेता है।
संस्कृति-रक्षा, शक्ति-संचय, सेवा-भाव बढ़ाना है।।03।।

आर्यावर्त ये भारत अपना, जग में रोशन नाम करें।
संकट पड़े कभी जो इस पर, जीवन भी कुर्बान करें।
आर्यवीर दल की समां का, ‘‘संजीव’’ बना परवाना है।।04।।



आर्यवीर संजीव आर्य 
मुख्य-संरक्षक 
गुरुकुल कुरुक्षेत्र 

गुरुवार, 1 नवंबर 2012

बहनों तुम करो विचार-विचार----


बहनों तुम करो विचार-विचार।
ये जीवन सफल बनाने का।।टेक।।











प्रातः समय नित ईश्वर-चिन्तन।
शौच सफाई दांतो पर दन्तन।
करो परस्पर प्यार- हां प्यार।।01।।

हवन से बढकर नहीं काम है।
सुखों का सागर चारों धाम है।
करो हवन से तुम महकार-महकार।।02।।

सास-श्वसुर तेरे मात-पिता हैं।
पति राम तेरे तू सीता है।
तेरा सीता सम-व्यवहार।।03।।

चोरी, चुगली झूठ छोड़ दे।
शराब की बोतल ठाके फोड़ दे।
ये जीवन करे दुष्वार- दुष्वार।।04।।

यज्ञ संध्या और बड़ों की सेवा।
शुभ कर्म मीठे फल मेवा।
करते हैं बेड़ा पार-पार।।05।।

ऊत भूत और डोरी गण्डे।
तुम्हें बहकावें जो मस्टण्डे।
ये श्याणे नीच मक्कार- मक्कार।।06।।

आर्यवीर ‘‘संजीव’’ का गाना।
सुनना और सुन ध्यान लगाना।
ये आर्यों का प्रचार- प्रचार।।07।।




रचना- 
श्री संजीव कुमार आर्य
मुख्य-संरक्षक, गुरुकुल कुरुक्षेत्र

शुक्रवार, 21 सितंबर 2012




अटल है इरादा, अपने राष्ट्र को बचायेंगे।
स्वदेशी अपनायेंगे, विदेशी भगायेंगे।।

नये-नये जहर आकर विदेशी बनाते हैं।
प्रचार है अनोखा, भोली जनता को बहकाते हैं।
मिरिण्डा और पेप्सी कोला पीवे ना पिलायेंगे।।01।।

अलग-अलग साबुन देखो, बाजारों में लाये हैं।
दाम इनके बड़े भारी, लूट-लूट खायें हैं।
लक्स, लिरिलि, ओ.के. कभी पियर्स से ना नहायेंगे।।02।।

कोलगेट और क्लॉज अप जैसे पेस्ट बनाते हैं।
हड्डियों का चूरा डाल, सेकरीन मिलाते हैं।
त्रिफला, त्रिकुटात्र तूतिया, माजुफल मिलायेंगे।।03।।

शुद्ध सादा नमक छोड़, पीसा हुआ लाये हैं।
पांच गुने दाम एक किलो पर बढाये हैं।
कैप्टेनकुक नमक ‘‘संजीव’’ कभी नहीं खायेंगे।।04।।

रचना- श्री संजीव कुमार आर्य
मुख्य-संरक्षक, गुरुकुल कुरुक्षेत्र

लय-चुप-चुप खडे़ हो.................




गुरुवार, 20 सितंबर 2012

हे प्रभो मेधा बुद्धि दीजै--


ओम्- यां मेधां देवगणाः पितरोश्चोपासते।
तया मामद्य मेधयाग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।।










हे प्रभो मेधा बुद्धि दीजै।
कर्म हमारे पावन कीजै।।

जिसको ध्यावें देव पितर सब।
वह सुमति हमें अब ही दीजै।।

तुम हो ईश्वर अगन सुपावन।
भाव हमारे उज्ज्वल कीजै।।

रचना- नन्द किशोर आर्य 
प्राध्यापक-संस्कृत 

बलिदान हुए जो देश की खातिर----


बलिदान हुए जो देश की खातिर, देश की खातिर मेरे राष्ट्र की खातिर।
हां जी हां ये उनको नमन है।।टेक।।


शनिवार, 1 सितंबर 2012

हे प्रभो दूर करो दुरितानि--


ओम्- विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।
यद्भद्रं तन्न आ सुव।।



हे प्रभो दूर करो दुरितानि।
पास रहो हमरे तुम दानी।।

भाव हमारे श्रेष्ठ बनाओ।
श्रेय गहे बनकर के ज्ञानी।।

देव हमारे सविता तुम हो।
रहूँ मैं तुमरे बन ढिग ध्यानी।।



रचना- नन्दकिशोर आर्य
प्राध्यापक संस्कृत गुरुकुल कुरुक्षेत्र

ओम् नाम नित बोल रे मन


ओम् नाम नित बोल रे मन ओम् नाम नित बोल ।
मनवा ओम् नाम नित बोल

ओम् नाम है प्रभु का प्यारा
यही है तेरा तारण हारा
इधर-उधर मत डोल
मनवा ओम् नाम नित बोल।।01।।

मानव का तन तूने पाया
सर्वोत्तम जो गया बताया
चोला ये अनमोल
मनवा ओम् नाम नित बोल।।02।।

जिह्वा से तू ओम् सुमर ले 
भव सागर से पार उतर ले
कटु वचन मत बोल
मनवा ओम् नाम नित बोल।।03।।

ओम् नाम से प्रीत लगाले
मन मन्दिर में जोत जगाले
लगता ना कुछ मोल
मनवा ओम् नाम नित बोल।।04।।

अमृम झरना झर-झर झरता
पीकर क्यों ना पार उतरता
जहर ना इसमें घोल
मनवा ओम् नाम नित बोल।।05।।

मोह माया के बंधन सारे
जीवन तेरा खाक बनारे
बंधन दे सब खोल
मनवा ओम् नाम नित बोल।।06।।

इधर-उधर जो फिरेगा मारा
कभी मिले ना तुझे किनारा
भेद दिया सब खोल
मनवा ओम् नाम नित बोल।।07।।

हीरा जन्म अमोलक पाया
‘‘संजीव’’ तू इसे समझ न पाया
कांच समझ रहा तोल
मनवा ओम् नाम नित बोल।।08।।

रचना- श्री संजीव कुमार आर्य
मुख्य-संरक्षक, गुरुकुल कुरुक्षेत्र







रविवार, 19 अगस्त 2012

हे प्रभो ! हम चलें पावन पथ पर।

ओम्- स्वस्ति पन्थामनुचरेम सूर्याचन्द्रमसाविव।
पुनर्ददताघ्नता जानता संगमेमहि।।



हे प्रभो ! हम चलें पावन पथ पर।
सूर्य चन्द्र सम अविचल रहकर।।

दान करें दुःख दीन का हर।
भाव भरो यह हमरे उर।।

उस पथ चलें हम जिस पथ चलकर।
भाव अहिंसक जगे हमरे उर।।

ज्ञान बढ़ावें ज्ञानी की संगत।
काटें भव के बंधन मिलकर।।

रचना- नन्दकिशोर आर्य
प्राध्यापक संस्कृत गुरुकुल कुरुक्षेत्र

बुधवार, 15 अगस्त 2012

सुखधाम सदा तेरा नाम सदा,

सुखधाम सदा तेरा नाम सदा,

कोई तुझसा और महान नहीं | सुखधाम.....

कण कण में रमा, घट घट में बसा

तेरा अपना कोई मकान नहीं | सुखधाम..... 


कोई दींन दुखी जो पुकारे तुझे

सुनता है प्रभु तु सदा उसकी

तुझे कहते हैं नाथ दयालु सभी

कोई तुझसा दयानिधान नहीं | सुखधाम.......



तुने यूँ तो रचाए जमीं आसमाँ

पर्वत सागर बहती नदियाँ

पर ढूंढने तुझको जाएँ कहाँ

तेरा पता व कोई निशान नहीं | सुखधाम......


हे जगत पिता हे जगत पति

कोई जान सका न तुम्हारी गति

क्या योगी यति क्या साधू सती

कोई दूजा तेरे समान नहीं | सुखधाम.......

तेरा नाम जपूँ प्रभु ये वर दो

बेमोल की अब झोली भर दो

करूणानिधि अब करुणा कर दो

कोई तुझसा करुणानिधान नहीं | सुखधाम.......

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

दुनियां वालो देव दयानंद दीप जलाने


वेदोध्दारक महर्षि दयानन्द जी 

दुनियां वालो देव दयानंद दीप जलाने आया था |

भूल चुके थे राहें अपनी वह दिखलाने लाया था |टेक


घोर अँधेरा जग में छाया नजर नही कुछ आता था |


मानव मानव की ठोकर से जब ठुकराया जाता था |


आर्य जाति सोई पड़ी थी घर घर जा के जगाता था |


दुनियां वालो देव दयानंद दीप जलाने आया था |१



बंट गया सारा टुकड़े टुकड़े भारत देश जागीरो में |


शासन करते लोग विदेशी जोश नही था वीरो में |


भारत माँ को मुक्त किया जो जकड़ी हुयी थी जंजीरों में |


दुनिया वालो देव दयानंद दीप जलाने आया था |२ 



जब तक जग में चार दिशाएं कुदरत के ये नजारे है |


सागर,नदियां,धरती ,अम्बर ,जंगल ,पर्वत सारे है |


पथिक रहेगा नाम ऋषि का जब तक चाँद सितारे है |


दुनिया वालो देव दयानंद दीप जलाने आया था |


भूल चुके थे राहें अपनी वह दिखलाने आया था |३

रविवार, 22 जुलाई 2012

न गाया ईश गुण, माया का.........


न गाया ईश गुण, माया का गुण गाया तो क्या गाया
न  भाया पुण्य , केवल पाप मन भाया तो क्या भाया

तुझे संसार सरोवर में कमल की भान्ति रहना था
न छोड़ी वासना, घर छोड़ वन धाया तो क्या धाया

किसी का विश्व से अस्तित्व ही बिल्कुल मिटाने को
अमर बेली की सदृश तू कहीं छाया तो क्या छाया

परम अनुपम गगन चुम्बी भवन अपना बनाने को
किसी निर्बल दुखी निर्धन का घर ढाया तो के ढाया

प्रकाशानन्द तो जब है खिलाओ ओरों को पहले
मधुर भोजन अकेले आप ही खाया तो क्या खाया

रचना - प्रकाश जी कविरत्न 

मंगलवार, 22 मई 2012

पीपल के पत्ते के ऊपर

पीपल के पत्ते के ऊपर तेरा ठोर ठिकाना है !

क्या जाने किस वक्त टूट कर मिटटी में मिल जाना है !

पका हुआ खरबूजा जैसे स्वयं छोड़ दे डाली को !
ऐसे ही तुम छोड़ के जाना इस दुनिया मतवाली को !
मृत्यु का बंधन कट जावे अमृत पद को पाना है ! क्या जाने किस वक्त .....

उत्तम मध्यम अधम पाश को परमेश्वर ढीला कर दे !
व्रत नियमों के परिपालन से दामन में खुशियां भर दे !
हो जावें अपराध रहित नर जीवन शुद्ध बनाना है ! क्या जाने किस वक्त .......

हंसना गाना मौज मनाना खाना पीना सोना है !
नियत समय तक इन सबसे सम्बन्ध सभी का होना है !
अंत काल में महागाल में ही हर हाल समाना है ! क्या जाने किस वक्त....

यह काया तो भस्म बनेगी आखिर इसका अंत यही है !
अग्नि वायु जल सभी छोड़ दें वेद में सच्ची बात कही है !
‘पथिक’ सिमर ले ओम् नाम को गर मीठा फल पाना है ! क्या जाने किस वक्त .......

रविवार, 4 मार्च 2012

तन्मे मनः शिवसंकल्प मस्तु ।


तन्मे मनः शिवसंकल्प मस्तु ।




कभी सोचा है क्यों इन्सां के ईमान बदलते रहते हैं । 


जब मन का लक्ष्य बदलता है इन्सान बदलते रहते हैं ।

हम स्वास्थ के लिए खाते थे तन को बलवान बनाते थे । 

अब स्वाद के लिए खाते हैं पकवान बदलते रहते है ।1।

गर्मी सर्दी से बचाने को हम पहनते थे तन पर कपङा । 

जब तन को सजाने को पहना परिधान बदलते रहते है ।2।

आत्मा का घर है ये नरतन इस तन के लिए बन गया भवन ।

आत्मा का जिनको नहीं ज्ञान वो मकान बदलते रहते हैं ।3।

सत्य है क्या और असत्य है क्या सत्संग में सिखाया करते थे । 

अब भक्तों को खुश करने को व्याख्यान बदलते रहते है ।4।

हो गये पुराने बृह्मा विष्णु शिव गणेश आदि सारे । 

इस लिए आज मन्दिर अन्दर भगवान बदलते रहते हैं ।5।

असली नकली का नहीं ज्ञान सस्ता मिल जाये यही ध्यान ।

ऐसे ग्राहक और खरीदार दुकान बदलते रहते हैं ।6।

प्रजा को सुखी बनाने को विधान बनाया ऋषियों ने । 

अब कुर्सी बचाने को नेता संविधान बदलते रहते हैं ।7।

जिनका मन है सच्चाई पर जायेगें नहीं बुराई पर । 

नरेश दत्त उनके आगे तूफान बदलते रहते हैं ।8।